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जैन सुवोध गुटका ।
(१३)
दुव्र्यसन को अनर्थ समझे, चले चाल कुलवान की। सत्संग करे डरे अपयश से, कथा सुने भगवान की ॥२॥ कुमार्ग में धन नहीं खरचे, परमार्थ में परवा न की । सत्य से प्रेम नम्रता पूरी, दृढ़ता पक्की जवान की ॥ ३॥ कुशिक्षा को कान सुने नहीं, माने बात नीतिवान की। दुःखी जीव ने देवे सहायता, कदर करे बुद्धिवान की ॥४॥ पक्षपात को काम नहीं है, नहीं लहर अभिमान की । गुरु प्रसादे चौथमल को, इच्छा रहे निर्वान की ॥ ५॥
१८ पर स्त्री निषेध. (तर्ज--ना छेड़ो गाली दंगारे भरवादो मोए नीर) __ मानो यह कहन हमारीरे, पर नारी छोड़ियो ।।टेर।। या हँस २ तुझे बुलावे, कर नेन सेन समझावे । है विप की भरी कटारीरे ॥१॥ या मीठी २ बोल, बूंघट के पटके ओले । फिर अपयश की करनारीरे ॥२॥ तन सुंदर वस्त्र सजावे, नवयुवक से प्रीत लगावे। कई छलबल की करनारीरे ॥३॥ मत रीको रूप निहारीरे, इसे समझो
आफू क्यारी । हुई रावण की कैसी खुवारीरे ॥ ४ ॥ मत प्यारी प्रिया जाणो, काली नागन है पहचानो । पल क्षण में प्राण हरनारीरे ॥ ५॥ सब भूख प्यास बिसरावे, स्वग्ने में वही दर्शावे । है पूरी कामणगारीरे ॥ ६॥ ये साल गुण्यासी जानो, हो इन्दौर शहर में पानों। कहे चौथमल हर वारीरे ॥७॥ .. . .