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"जैन सुबोध गुटका |
( ३२१ )
पाषाण में ! तिल तेल - घृत है दुग्ध में, फिर खड्ग जैसे म्यान में । मोह - जाल में फंस क्यों भूला उसे ॥ १ ॥ नाभि कमल में मुश्क कां, नहीं मृग को कुछ भान है । घास को वह संघता जगत् ऐसे अज्ञान है । कहे कहां तक. खुद की नं खबर जिसें ॥ २ ॥ कर की नब्ज़ से भी निकट, नहीं दूर उसको जाननी | दगाबाजी का हटा, पर्दा उसे पहिचानना । बिना सत्संग के मिलता न वह तो किसे - ||३|| कहे चौथमल द्वित भाव और दुरंगी चालें छोड़ दे । दूदल अपने ही अन्दर मिथ्याश्रम को तोड़ दे । इन वि पयों में नाहक तू तो फंसे ॥ ४ ॥
नंबर ४३५
[ तर्जं पूर्ववत् ]
कैसे वीर कज़ा के हुक्म में चले । क्या है ताकत अली जो करके चले ।। र ।। छत्र धारी राय-राना घनी निर्धन भी चले | कौन कायम यहां रहा, जब काल का चक्र चले । करनल, लेफ्टन, जनरल सर्जन चले ॥ १ ॥ वैद्य धन्वंतरि चले हकीम लुकमां भी चले । कप्तान सूबेदार और साहिब मुन्शी भी चले । दफ्तर छोड़ के बाबू साहब चलें ॥ २ ॥ चक्रवर्ती, बादशाह, माण्डलिक, श्रवतारी चलें। काल की गर्दिश में सूर्यग्रह तारा भी चले । राम रावण, फिर चारों ही युग चले ॥ ३ ॥ पटेल, नम्बरदार,
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