________________
जन गुरोध गुटका।
(१६६)
-
..
बीच में क्यों बैठता तले ।। देखो० ॥१॥ करले तो जरा गौर लाया, क्या बांध के पले । कुल ठाठ पढ़ा रह गया अकेले श्राप चले ॥ देखो० ॥२॥ पहनी पोशाक हीर चीर, महंगी मलमलें । फिरता है किस गरूर में, ये काल तुझे छले । देखी० ॥ ३ ॥ जो हुक्म है मालिक का, ला ईमान मत टले । जान का अंजान हो, नसीहत को क्यों गले ॥ देखी० ॥ ४ ॥ इस सल्क में जिन धर्म का, दर्जा जो है अले । कहे चौथमल गुरु प्रसाद, श्राशा सब फले ।। देखी० ॥५॥
-5+ xs२८५ भोगोंसे अतृप्त.
[तर्ज-कव्याली] कमी भोगों से इस दिलको सबर हरगिज नहीं पाता। चाहे हो बादशाह क्यों नहीं, सबर हरगिज नहीं पाता
टेर।चाहे हो महल रत्नों का, सजी हो सेज फूलों की मिल अप्सरा अजर सुंदर, सबर हरगिज नहीं पाता। कमी ॥ १॥ होके चक्रवर्ती राजा, रखा सर ताज भारन का। चले है हुक्म लाखों पर, सबर हरगिज नहीं माना ( कमी० ॥२॥ सनी पोशाक लगा इत्तर, बैठ कुसी पे मुंदर संग। गले हो हार मोत्यों का, सबर हरगिज नहीं खाना । कमी० ॥३॥ चाहे गुलशन की करलो बहार, अजयघा की हवा खालो । सवारी रेल मोटर की, समर लगिज नहीं