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जन मुबोध गुटका।
(१७)
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लामो फिर मोटा ।। चाहे ॥२॥ पक्षात का लिखा फैसला संञ्च को करे झूठा। कपट कमाई करी दीन, दुखियों को नूने लूटा । पड़े क्यों नहीं टोटा । चाहे ॥३॥ दान-दया, पापी नहीं समझे, सत्संग लागे सारी । चीथमल कहे घाणी घेल ज्यु, फिरे संसार मुभारी। मिले नहीं थाली लोटा ॥ चाहे० ॥४॥
२८२ प्रभु उपकार.
(त-दादरा) स्वामी मेरा कैसा जबर, उपकार कर गया । सोते हुए मोह नींद में, सबको जगा गया। टेर|ार्य क्षेत्र बीच में मानिंद गुलाब के। धर्म जन का प्रभुजी फैला गया। स्वा०॥१॥अर्धमागधी भाषा में, द्वादश अंगका। शीघ्र चोध के लिए, अच्छा रचा गया ॥ स्वा० ॥२॥ गृहस्थ मुनिराज का,तिरना हो किस तरह । यह दोनों धर्म भिन्न भिन्न, कर बता गया ।। स्वा० ॥३॥ भूला हुया अनादि का, रास्ता यह मोन का । ज्ञान का उद्यात करके श्राप दिखा गया ।। स्वा० ॥ ४ ॥ जो धीर प्रभु को जपे, शुद्ध मात्र लायके । तो न प्रियंच के, ताला ही लग गया ।। स्वानी ॥ ५ ॥ कहां तक तारीफ इम करें, चारों ही संघ की। मानों लगा के बाग प्राप, सींच के गगा