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जन सुवोध गुटका। सुन कर कोपियो सरे, मांडया आत से जंग । दोनों बार जब अड़गया सरे, लांग होगया दंग || आया० ।। १२ ।। इंद्रजीत और कुंभकर्ण मिल, दोनों के ताई छुड़ाया। मन मोती गया ट फर, अब मिलता नहीं मिलाया ॥ आया० ॥ १२ ।। रावन कहे मत रहे नगर में, जा तूं राम के पास । पगे लाग ने चले अन्नोणी तीस संग है खास || थाया० ॥ १३ ।। देखो राम का पुण्य सवाया, शरण विभीषण आयो । अवसर पर सेवक बने सरे, मिलियो मान सवायो | आया०॥ १४ ॥ हंसा को मोती घणा सरे, भंवरा ने बहु फूल | सच्चे को सच्चा नहीं जाने, है उसके मुख धूल || श्राया० ॥ १५ ॥ गरु प्रसाद चौथमल को रक्खों आत से प्रेम । जहां संप तई संपत्ति नाना, वरते कुशल और क्षेम ॥ श्राया० ॥१६॥
__२६३ ग्रायुश्चंचलता
(कन्याली) अरे जाती है चीती यह तेरी ऊनर, जिसकी तो तुझको खबर ही नहीं। क्यों वांका घमंडी हो भूला फिरे, तेन ज्ञान की सीखी सतर ही नहीं टेिस तूं ने जुल्मों पे बांधी है अपनी कमर, जरा नर्क निगोद का डरही नहीं। जहां पे गुजोसे पीट फरिस्ते तुझे, कुछ नानी, दादी का तो घर ही नहीं ॥सरेगा। खाली ऐशों में दी तेने उम्र विता,और भागे का किया फिकर ही नहीं।