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जैन सुयोध गुटका।
(१२३)
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१६० श्रात्म बोध.
(सर्ज-बटवा गूंधन देरे) पलक २ श्रायु जायरे चेतनिया पलक २ श्रायु जाय।अरे! मेरे कहने से करलोरे सुकरत पलक २ श्रायु जाय ॥टेर ।। बाल पणो हंस खेल गंवायो, योवन तिरिया चाय । वृद्धपना के मायनेरे, फेर वने कछु नाय ॥ अरे० ॥१॥ मात पिता और सजन स्नेही, स्वार्थ भेला थाय । जो स्वार्थ पूगे नहीं तो, तुर्त ही बदली जाय ।। ।। च्यार दिनां की चांदनीरे, जिस पे रहा लोभाय । लाया पुन्य खूटी रहारे, फेर करेगा काय ॥३॥ गफलत में मत रहे दिवाना, सांची देऊं बताय । ऐसा वत फेर न मिलेरे, जाग तू प्रमाद उड़ाय ॥४॥ सूतर को सुणवो मिल्योरे, सद्गुरु सेवा पाय । जन्म सुधारो श्रापणोरे, धर्म करो चित्तलाय ॥ ५ ॥ उगणीसे चौसठ जाणजोरे, मन्दसोर के मांय । गुरु प्रसाद चौथमल यों, जोड़ सभा में गाय ॥६॥
१६१ झूठ पाप का मूल. (तर्ज-विना रघुनाथ के देखे नहीं दिल को करारी है.) सजन तुम भूठ मत बोलो साहय को सत्य प्यारा है। सत्य सम सरणा नहीं दूजा। सत्य साहब को प्यारा है ॥टेर ॥ सजन इस झूठ के जरिये, इज्जत में फर्क आता है । भरोसा नागिने कोई, झूठ निमक से खारा है ॥ सजन० ॥१॥ चाहे गंगा चाहे यमुना, चाहे सरजू किनारा है। चाहे मन्दिर चाहे मसजीत, चाहे ठाकुर द्वारा है ॥२॥ दोजन के बीच फरीस्ते, झूठों की जीभ कतरेंगे। फेर गुरजों से मारेंगे, करे यहां पर पुकारा है ॥३॥ सांच को शांच है नांदी, सांच भाकयत में