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६६] जैनासिदांतसंग्रह।
अति भदभुन प्रभुता लखी, वीतरागवा माहि । विमुख होंहि ते दुख लहें, सन्मुख सुखी लखाहिं ॥ कलमल कोटिक न रहे, निरखत ही जिन देव ।। ज्यों रवि जगत जगतमें, हरै तिमर स्वयमेव ॥१॥ परमाणू पुद्गल तणी, परमातम संयोग । मई पूज्य सब लोकम, हरे भन्मका रोग ॥१॥ कोटि जन्मम कर्म भो, चषि हते अनन्त । ते तुम छवि विलोकिते, छिनमें हो है अंत ॥ १२॥ आन नृपति किरपा करे, तव कछु दे धन धान । तुम प्रभु अपने भक्तको, करलो आप समान ॥१॥ यंत्र मंत्र मणि औषधी, विपहर राखत प्राण ।
यो निन छवि सब भ्रम हरे, करै सर्व प्राधान ॥ ११॥ त्रिभुवनपति हो ताहि ते छत्र विराजे तीन । अमरा नाग नरेश पद, रहे चरण आधीन ॥ १५॥ अब निरखत भव आपने, तुव भामंडल बीच । भ्रम मेटे समता गहे, नाहिं लहे गति नीच ॥ १६ ॥ दोई ओर ढोरत अमर, चौसठ चमर सफेद । निरखत भविजनका हरे, भव अनेक का खेद ॥१७॥ तरु अशोक तुव हरत है, भवि जीवनका शोक । आकुलता कुल मेटिके, करै निराकुल लोक ॥ १८॥ . अन्तर बाहिर परिग्रह, त्यागो सकल समाज । सिंहासन पर रहत हैं, अंतरीक्ष जिनराज ॥ १९ ॥ नीत भई रिपु मोह ते, यश सूचत है तास ।