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जनसिद्धांतसंग्रह।
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याके सु फल धन धान्य सम्पत्ति. रूप गुण शुम पाइये। सुरपद सहन ही मिलत हैं, वतु कर्म हर शिव जाइये ॥ १९ ॥
(१४) श्री अहत पूजा ।
छप्पय-जय मरहंत महंत, त्रिनग-वन्दित अमिरामी।
दोष गठारह रहित, सहित छयालिस गुणनामी । जगत चराचर लखत, हस्तरेखावत ज्ञानी । युक्तिशास्त्र भविरोधि बचन जिन परम प्रमानी ॥ हे महेन् । भव्य परमशरण ! पूज्य प्रमो! इत भाइये।
मैं पूजन-हित उत्सुक खड़ो, दर्शन दे हर्षाहये ।
ॐ ह्री भष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिंशद्गुण सहित श्रीं महत्परमेष्टिन ! अत्र अवतर अवतर, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः । मत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
द्रव्याष्टक। तुम परम पावन सुख सदन मन वन भ्रमत जगनन-शरण ।
तुम जन्म मरण नरा हरण नग जलधि-भवि तारण तरण ।। यह विरद सुन मायो शरण ले ममल मळ मवमल हरण ।
त्रयधार दे बहुभक्तिसे पूनों चरण मन शुचिकरण ॥ ॐ ह्रीं श्री महत्परमेष्टिने नन्मनरामृत्युंविनाशनाय नलं ॥१॥ तुम देव-इन्द्र नरेन्द्र कर वन्दित प्रभो ! मुखकन्द हो ।
भव पाप ताप निवारवेको तम्हीं अनुपम चन्द हो।