SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 414
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जनसिद्धांतसंग्रह। [ ४५३ याके सु फल धन धान्य सम्पत्ति. रूप गुण शुम पाइये। सुरपद सहन ही मिलत हैं, वतु कर्म हर शिव जाइये ॥ १९ ॥ (१४) श्री अहत पूजा । छप्पय-जय मरहंत महंत, त्रिनग-वन्दित अमिरामी। दोष गठारह रहित, सहित छयालिस गुणनामी । जगत चराचर लखत, हस्तरेखावत ज्ञानी । युक्तिशास्त्र भविरोधि बचन जिन परम प्रमानी ॥ हे महेन् । भव्य परमशरण ! पूज्य प्रमो! इत भाइये। मैं पूजन-हित उत्सुक खड़ो, दर्शन दे हर्षाहये । ॐ ह्री भष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिंशद्गुण सहित श्रीं महत्परमेष्टिन ! अत्र अवतर अवतर, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः । मत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । द्रव्याष्टक। तुम परम पावन सुख सदन मन वन भ्रमत जगनन-शरण । तुम जन्म मरण नरा हरण नग जलधि-भवि तारण तरण ।। यह विरद सुन मायो शरण ले ममल मळ मवमल हरण । त्रयधार दे बहुभक्तिसे पूनों चरण मन शुचिकरण ॥ ॐ ह्रीं श्री महत्परमेष्टिने नन्मनरामृत्युंविनाशनाय नलं ॥१॥ तुम देव-इन्द्र नरेन्द्र कर वन्दित प्रभो ! मुखकन्द हो । भव पाप ताप निवारवेको तम्हीं अनुपम चन्द हो।
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy