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प्रस्तावना सजनों !... ...
जनसिद्धान्तसंग्रहकी वीसरी आवृत्ति आज आपके सम्मुख प्रस्तुत है। पहली और दूसरी आइतिकी कुल प्रतियां इतने स्वल्पसमयमें बिक गई जिससे स्पष्ट विदित होता है कि जैन समाजमें ऐसे अन्यकी बहुत आवश्यक्ता है। ऐसा होना ठीक ही है। जिस अन्य संग्रहम जैन बालकोंक पठन योग्य पाठोंसे पर नित्य नियमके उपयोगी सभी विषयों का समावेश होकर पंडितों ताके स्वाध्याय योग्य अन्योंका सम्मेलन हो उस अन्यरतका इतना आदर होना स्वाभाविक ही है। स्वल्प मूल्य प्रायः सभी उपयोगी विषय एकत्र मिल सके यह मायः सब नी भाइयोंकी सदैव इच्छा रहती है। समाजमैं इस ग्रन्थ आज भी सी आवश्यक्ता होनेसे यह तृतीयावृत्ति पाठकोंके सन्मुख प्रेषित करनी पड़ी है। . .
द्वितीयावृत्तिकी नाई इस आवृधिम भी छनई सफाई और कागजी उचमता की ओर.पछुत ध्यान रखखा गया ई-नवीनर विषयोंका समावेश कर देने वारण प्रन्यवा आकार पहले की अपेक्षा कुछ बढ़ गया है तो मी मूल्य नहीं बढ़ाया गया है।
पुस्तकके विषय नियंत्रण, अबकी बार कुछ परिवर्तन गया गया है। विषयों की गिनतीकी ओर रुक्ष्य न रख अबकी बहुत से उपयोगी विश्य बढ़ाकर संप्रहके पांच भाग बना दिये गये हैं । आशा है कि स्वाध्याय प्रेमी जनगण इस संग्रहको पहलेकी नाई अपनायेंगे। इस आवृत्तिके.संशोधनमें श्रीमान् मास्टर दीपच दी वर्णी, पं. माणिक्यचन्दजी न्यायतीर्यसागरने अपना अमूल्य समय देकर जो सहायता की है उसके लिये हम
धारणसे आमारी हैं। . सागर, . ज्येष्ठ शुदी ५ (शुपंचमी) । जाति सेवक विक्रम ...) मूलचन्द विती जैन । ।