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________________ जैनांसद्धांतसंग्रह। [४३७ ॐ हीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीमदईतपरमेष्टिन् । मत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः । ॐ हीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशदगुणसहित श्रीमदईपरमेष्टिन् ! भत्रममसन्निहितो भव भव वषट् । (धानतगयकृत नन्दीश्वर दीपाष्टककी चाल।) शुचिक्षीरउदधिको नीर, हाटक भृङ्गमरा । तुमपदपूनों गुणधीर, मेटो जन्मजरा ॥ हरि मेरुसुदर्शन नाय, निनवर न्हौन करें । हम पूनै इनगुण गाय, मंगल मोद धेरै ॥ १॥ ॐ हीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुगसहित श्रीमद. इत्परमेष्टिने जन्मनरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।। केसर घनसार मिलाय, शीत सुगंधषनी । जुगचरनन चर्चा लाय, भव आतापहनी ॥ हरि मेरु मुदर्शन जाय, निनवर न्हौन करें। हम पूमैं इतगुण गाय, मंगल मोद धेरै ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुणमहित श्रीमदहत्परमेष्टिने संसारातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।। मक्षत मोती उनहार, स्वेत सुगन्ध भरे। पाउं अक्षयपदसार, ले तुम भेंट धेरै ॥ ३ ॥ हरि० ॐहीं अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशदगुणसहित श्रीमदइत्परमेष्टिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।। वेल्हा जूही गुलाव, सुमन अनेक भरे।। तुम भेट घरों जिनराम, काम कलंक हरे॥, .
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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