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________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। मार २.सुनिये सदा क्षेत्र महां दुर्ग। पहें व्यार ममुहावनी, भशुभ क्षेत्र सम्बन्ध ॥ ६ ॥ तीन नोकको नाज सब, नो भक्षण कर लेय । . . जो भी भूख न उपशमे, कौन एक कण देय ॥ ६ ॥ • सागरके जलसों नहां, पीवत प्यास न जाय | . लहे न पानी बूंद सम, दहे निरंतर काय ॥ ६ ॥ वात पित्त कफ भनित जे, रोग नात या बन्त । तिनके सदा शरीरमें, उदै मायु पर यंत्र ॥ ६ ॥ कटु तुंबीसों कटुक रस, करवतकी सम फांस। : निनकी मृतक मझार सो, मधिक देह दुर्वास ॥६५॥ योजन काख प्रमाण नहं, कोह पिंह गल जाय । ऐसी है पति उष्णता, ऐसी शीत मुभाय ॥ ६६ ॥ भडिल्ल-पंक प्रभा पर्यंत उष्णता भतिकही, धूम प्रभामें शीत उष्ण दोनों सही ॥ .. छटी सातवीं भूमिनि केवल शीत है, . ___ ताकी उपमा नाहिं महाविपरीत है ॥ ६७ ॥ दोहा-स्वान स्पार मंनारकी, परी कलेवर राम । मासनसा अरु रूधिरकी, कदौ नहाँ. कुवास ॥१८॥ ठाम १ अमुहावने, सेवक सेतरु मूर। • पैने दुख देने कठिन, कंटक कलि तक शूर ॥ ६९ ॥ और जहां मसि पत्रवन, भीम तरोधा खेत । जिनके दलं तरवारसे, लगत घावकर देत ।। ७.० ॥ वैतरणी सरिता समल, लोहित लहर भयान ।
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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