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जैनसिद्धांतसंग्रह। जाकी निनथुति कबहुं न होय। वंदौं अंरजिनवर, पद होय ॥८॥ परभव रतनत्रय अनुराग । इस भव व्याहसमय वैराग ॥ बालब्रह्म पूरन व्रत, धार । वंदौं मेलिनाथ जिनसार ॥ १९॥ विन उपदेशं स्वयं बैराग । थुति लौकांत करें पग लाग ॥ नमः सिद्ध कहि सव व्रत लेहिं । वेदों मुनिसुव्रत व्रत देहि ॥२०॥ श्रावक विद्यावत निहार । भगतिभावसौं दियो अहार ॥ . बरसे रतनराशि ततकाल | वंदी नमिप्रभु दीनदयाल ॥११॥ सब जीवनकी वंदी छोर । रागंदोष दो वंदन तोर ॥ रज मति तन शिवंतियसों मिले । नेमिनाथ वंदौं सुखनिले ॥२२ दैत्य कियो उपसर्ग अपार । ध्यान देख आयो फणिधार ॥ गयो कमठ शठ मुखकर श्याम । नमों मेरुसम पारसस्वाम ॥१॥ भवसागरते जीव अपार । घरमगोतमें घरे निहार ॥ डूबत काढ़े दया विचार । वर्द्धमान वंदी बहुवार ॥ २४ ॥ दोहा-चोवीसौं पदकमलजुग, वंदी मनवचनकाय ।
'द्यानत' पढ़े सुनै सदा, सो प्रमु क्यों न सुहाय ॥१५॥
(३) वृहत्वयं मुस्तोत्र। . . . (श्रीमद्भगवद्वादिगजकेसरी स्वामी समन्तभद्राचार्य विरचित ). स्वयम्भुवा भूतहितेन भूतले समञ्जसज्ञानविभूतिचक्षुषा। विरामितं येन विधुन्वतां तमः क्षपाकरेणेव गुणात्करैः करैः ॥॥ 'प्रभापतियः प्रथम जिनीविषुः शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः ।। प्रबुद्धतत्त्वः पुनरद्धृतोदयों ममत्वतो निर्विविदे विदांवरः ॥ २ ॥ विहाय यः सागरंवारिवांसंस वधूमिवमा वसुंधावंधू संताम् ।।