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२४] जैनसिद्धांतसंग्रह।
द्वितीय खंड। (१) इष्टछत्तीसी अर्थात् पंचपरमेष्टीके १५३ मूलगुण।
सोरठा। मणमू श्री अहंत, दयाकथित जिनधर्मको। गुरु निरपथ महंत, अवर न मानूं सर्वथा ॥१॥ विन गुणकी पहिचान, नान वस्तु समानता। तातें परम बखान, परमेष्ठी गुणको कहूं ॥२॥ रागद्वेण्युत देव, माने हिंसाधर्म पुनि । सग्रंथनकी सेव, सो मिथ्याती जग अमै ॥३॥
अथ अरहंतके ४३ मूलगुण।
दोहा। चौतीसा अतिशय सहित, प्राविहार्य पुनि आठ। अनंत चतुष्टय गुणसहित, ये छियालीसों पाठ ॥ ४॥
अथ-१४ अतिशय, ८ प्रतिहार्य, १ अनंतचतुष्टय ये अरहंतके १६ मूलगुण होते ह । अव इनका भिन्न वर्णन करते हैं
जन्मके १० अतिशय। . अतिशय रूप सुगंध तन, नाहि पसेव निहार । प्रियहितवचन अतुल्य बल, रुधिर शत भाकार ॥५॥