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जनसिद्धांतसंग्रह।
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श्रीपति मिनवर करुणायतनं, दुखहरन तुम्हारा बाना है। मत मेरी वार अवार करौ, मोहि देहु विमल कल्याना है ।टेका ॥१॥ त्रैकालिक वस्तु प्रतच्छ लखो, तुमसों कछु बात न छाना है। मेरे उर आरत जो वर्ते, निह सब तुम जाना है | अवलोकि विथा मत मौन गहाँ, नहीं मेरा कही ठिकाणा है। हो राजिवलोचन, सोचविमोचन, मैं तुमसों हित मना है ॥ श्री. ॥२॥ सब ग्रन्थनिमें निर्भयनने, निरवार वही गणधार कही। जिननायक नी सब लायक है, सुखदायक छायकज्ञानमही। यह बात हमारे कान परी, तब मान तुम्हारी सरन गही। क्यों मेरी धार विलंब करी, जिन नाथ कहो यह बात सही ॥ श्री. ॥३॥ काहको भोग मनोग करो, काहूको स्वर्ग विमाना है। काहूको नाग नरेशपती, काहूको ऋद्धिनिधाना है । अब मोपर क्यों न कृपा करते, यह क्या अंधेर नमाना है । इन्साफ करो मत देर करो, सुखद भरो भगवाना है श्री. ॥४॥ खल कर्म मुझे हैरान किया, तब तुमसों मान पुकारा है । तुम हो, समरस्थ, न न्याव करो, तब वंदेका क्या चारा है ।। खलपालक पालक बालकका, नृप नीति यही नग सारा है। तुम नीतिनिपुण त्रैलोकपती, तुम ही लग दौर हमारा है। श्री०। ५॥ नबसे तुमसे पहिचान भई, तबसे तुमहीको माना है । तुमरे ही शासनका स्वामी!, हमको शरना सरधाना है। जिनको तुमरी शरनागत-है, तिनसों नमरान डरना है । यह सुमस तुम्हारे साचेका, जस गावत वेद पुराना है ॥ श्री. ॥६॥ जिसने तुमसे