SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१४] जैनसिद्धांतसंग्रह। ॐ ह्रीं पंचमेहसंबंधिभस्सीजिनचत्यालयस्यविनाविम्प्रेभ्यो मध्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ ( अर्यके बाद विसर्जन करना चाहिये ) (११) रत्ननायपूजा। दोहा-चहुंगतिफणिविषहरनमणि, दुखपाक जलधार । शिवसुतमुधासरोवरी, सम्यकत्रयी निहार ॥१॥ ॐ ह्रीं सम्यग्रत्नत्रय ! अत्रावतरावर । संवौषट् । . ॐ ही सन्यप्रत्नत्रय ! अत्र तिष्ठ विष्ट । ऊ : ॐ ही सम्यप्रत्नत्रयः। अत्र मम सन्निहिने भव भव । वषटी. होरठा-क्षीरोदपि उनहार, उजल जल अति सोहना। जनमरोगनिरवार, सन्यकरत्नत्रय यनों ॥ १ ॥ ही सम्यग्रलत्रयाय जन्मनरामृत्युरोगविनाशनाय नलं ॥१॥ चंदन केसर गरि, परिमल महां सुगंधमय । जन्मरो० ॥२॥ ॐही सम्यग्रत्नत्रयाय भवातापविनाशनाय चंदनं ॥२॥ वंदुल अमल चितार, बासमती सुखदासके। जन्मरो० ॥३॥ ॐ ही सम्यमलत्रयाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् ॥ ३ ॥ महके फूल अपार, अलि गुर्जे ज्यों श्रुति करें। जन्मरो० ॥ १ ॥ ॐही सम्यग्रत्नत्रयाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं ॥ १ ॥ लाडू बहु विस्तार, चीकन मिष्ट सुगंधयुत । जन्मरोः ॥५॥ ॐ ही सम्यमलत्राय तुषारोगविनाशनाय नैवेद्यं ॥५॥ दीपरतनमय सार, जोत प्रकाश जगतमें । जन्मरो० ॥ ६ ॥ ही सम्यात्नत्रयाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं ॥६॥
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy