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२२८] जैनसिद्धावसंग्रह । "काय छहों प्रतिपाल, पंचेन्द्री मन वश करो। संजम रतन समाल, विषयचोर बहु फिरत हैं ।॥ ६॥ उत्तम संजम गहु मन मेरे। भवमत्रके मार्ग अघ तेरे। . सुरग नरक पशुगतिमें नाहीं । आलसहरन करन सुख ठाहीं । गही प्रथी नल आग मारुत, रूख त्रस करुना घरो। सपरसन रसना भान नैना, कान मन सब वश करो। निस विना नहिं निजगज सीझें, तू रुल्यो जगकीचमें । इक घरी मत विसरो करो नित, आयु नममुखबीचमें ॥१॥..
ॐ ह्रीं उत्तमसंयमधर्माङ्गाय अयं निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥ तप चाह सुखराय, कर्म सिखरको वज्र है द्वादशविषि सुखदाय, क्यों न करै निन सक्ति सम् ॥ ७॥ उत्तम तप सवमाहि वखाना । कर्मशिखरको वन समाना। बस्यो अनादिगोदमंझारा । भूविकलत्रय पशुवन धारा ॥ . धारा मनुष तन महादुर्लभ, सुकुल आयु निरोगता। श्रीजनवानी तत्वज्ञानी, भई विषमपयोगता ॥ अति महादुर्लभ त्याग विषय, कपाय नो तप आदरै। नरभवअनूपमकनकघरपर, मणिमयी कलसा घरै ॥ ७॥
ॐ हीं उत्तमतपोधर्माङ्गाय अय निर्वपामीति स्वाहा ॥ दान चार परकार, चार संघको दीजिये। धन विजुली उनहार, नरमव लाहो लीजिये ॥ ८ ॥ उत्तमत्याग कयो जगसारा । औषध शास्त्र अभय अहारा । निश्चय रागद्वेष निरवारै। ज्ञाता दोनों दान समारै। दोनों संमारे कूपनलसम, दरव घरमें परिनया ।