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________________ १९६] जैनसिदांतसंग्रह। प्रसा-इह निणवरवाणि विसुद्धमई। जो भवियणणियमण धरई।. सो सुरणरिंदसंपय लहिवि। केवलणाण विउत्तरई ॥१३॥ ॐ ह्रीं जिनमुखोद्भुतस्याहादनयमितद्वादशांगधुतज्ञानाम. अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। ': अर्थ गुरुजयमाला प्राकृत। मवियह मवतारण, सोलहकारण, मजवि तित्थयरतणहं। . तव कम्म असंगइ दयधम्मंगह पालवि पंच महन्वयहं ॥१॥ वंदामि महारिसि सीलवंत । पत्रंदियसनम जोगजुत्त । जे न्यारह अंगह अणुसरति । जे चउदहपुव्वह मुणि धुणति ॥ पादाणु सारवार कुटुवुद्धि । उप्पण्णजाह आयासरिद्धि। ने पाणाहारी तोरणीय ने रुक्खमूल आतावणीय ॥ ३॥ ने मोणिधाय चंदाहणीय । जे जत्थत्यवाणि णिवासणीय । जे पंचमहव्वय धरणधीर । ने समिदि गुत्ति पालणहि वीर ॥॥ ने वदहि देह विरत्तचित्त | ने रायरोसमयमोहचत्त । जे कुगइहि सवरु विगयलोह । ने दुरियविणासण कामकोह ॥५॥ जे जलमल्ल तिणलित गत | आरम्भ परिगह ने विरत ।... ने तिण्णकाल बाहर गमति । छछम दसमठ तउचरंति ॥ ६॥ ने इकगास दुइगास लिति । नेणीरसमोयण रह करति । ते मुणिवर बंदऊँ ठियमसाण | जे कम्म डहइवरमुक्कझाण ॥७ बारह विह संनम जे घरंनि । ने चारि विकहा परहरति । . बावीस परीषह ने सहति । संसारमहण्णड ते तरति ॥ ८॥
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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