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जनसिद्धांतसंग्रह । - तृषा परीषह-पराधीनः मुनिवरकी मिक्षा - पर घर . लेय कहें कुछ नाही। प्रकृति विरुद्ध पारण' मुंजत बढ़त प्यास. . की त्रास तहाही ॥ ग्रीषमकाल पित्त भतिकोपै लोचनं दोय फिरे जव नाहीं । नीर न चहैं सहैं ऐसे मुनि जयवन्ते वा जग-माहीं ॥ ४ ॥
३शीन परीषह-शीत काल सबही जन कम्पतः खड़े तहां वन वृक्ष डहे हैं । झंझा वायु चले वर्षाऋतु बर्षत बादल. झूम रहै हैं ॥ तहां धीर तटनी तट चौपट ताल पाल परकर्म दहे। हैं। सह समाल शीतकी बाधा ते मुनि तारण तरण कहे है।।
४ उष्ण परीषह-भूखप्यास पीड़े उर अन्तर प्रजुलै आंत देह सब दागै। अमि सरूप धूप ग्रीषमकी तातीवाय झालसी लागै ॥ त पहाड़ ताप तन उपजति कोपै पित्त दाह ज्वर मागे । इत्यादिक गर्भाकी बाधा सहैं साधु धीरन नहाँ त्यागें ॥६.
५ डन्समस्क परीषह-डन्स मस्क माखी तनु का. पा. वन पक्षी बहुतेरे । डसें व्याल विषहारे विच्छू लगें खजूरे आन घनेरे ॥ सिंह स्याल सुन्डाल सतावें रीछ रोझ दुख देहि । घनेरे। ऐसे कष्ट सह समभावन ते मुनिराज हरो अघ मेरे ॥७॥
नग्न परीषह-अन्तर विषयवासना बरते बाहर लोक लाज भय भारी । याते परम दिगम्बर मुद्रा घर नहिं सके दीनः संसारी ॥ ऐसी दुर्द्धर नगन परीषह जीते साधुशील व्रतधारी । निर्विकार बालकवत निर्भय तिनके चरणों धोक हमारी ॥ __ ७ अरति परीषह-देशकालका. कारण लहिकै होता अचैन अनेक प्रकारें । तब तहां छिन्नं होत अगवासी कलमलाया