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जैनसिद्धांत संग्रह -
बन चाले भूखे हुए, नामन वृक्ष निहार ॥ ३ ॥
कृष्ण वृक्ष काटन चहे भील जुकाटन लघु ढाली कापोत उर पीठ सर्व फल पद्म चहै फल पक्कको, तोडूं खाऊं शुक्ल चहें घरती गिरे, तूं पक्के निरवार ॥ ५ ॥ जैसी जिसकी लेश्या, तसा बांचे कर्म । श्री सद्गुरु संगति मिले, मनका जावे मर्म ॥ ६ ॥
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डाल |
माल ॥ ॥
सार ।
(३२) द्वादशानुक्रेक्षा ।
(पं. मुन्नालालजी विशारद महरोनी कृत ) उद्बोधन |
भवदाहसे संतप्तजनको शांतिकारी भावना | इन्द्रिय विषय तन, भोगसे वैराग्यका भावना || मुनि चित्त प्यारी, कुगति हारी, केयकारी भावना | "मणि" हो निराकुल चित्तभावहु. नित्य बारह भावना ॥ उत्तेजन ।
हे आत्मन् ! तन, घन विनश्वर क्या तुझे दिखता नहीं ? १ यमसे ग्रसित क्या जीवको, कोई शरण दिखता कहाँ ? २ - क्या है सुखी निश्चिन्त कोई इस दुखद सुख स्वार्थ के साथी स्वजन, क्या दीखते
संसार में ? ६
दुख घारमें ? 8
जानता । ५
परद्रव्य तुझसे मित्र हैं तू एक मलमूत्रमय दुर्गंध तनको
रूप
इनको
पना
मानता ६
!