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जैनसिद्धांतसंग्रहः। ।१५३ (२८) कुगुरु; कुदेव, कुशास्त्रकी भक्तिका फल।
अन्तर बाहर ग्रन्थ नहि, ज्ञान ध्यान तप लीन । सुगुरु विन कुगुरु नमें. पड़े.नक हो दीन ॥ १॥ दोषरहित सर्वज्ञ प्रभु हित उपदेशी नाथ । श्री अरिहंत सुदेव , तिनको नमिये माथ ॥ २॥ रागद्वेष मलकर दुखी, हैं कुदेव जगरूप ।। तिनकी वन्दन जो करें, पड़ें न भवकूप ॥ ३ ॥
आत्मज्ञान वैराग्य सुख, दया क्षमा सत शील । भाव नित्य उज्जल करै. है सुशास्त्र भवकील ॥१॥ रागद्वेष इन्द्री विषय प्रेरक सर्व कुशास्त्र । तिनको जो वंदन करे, लहै नर्क विटगान ॥ ५ ॥
(२९) खोटे कोका फल । मद्य, मांस, मधु भक्षण करनेका फलजो मतवारे होत ह, पीय मद्य दुख दाय । उन्है पिलावत नरकमें, तांबों लाल तपाय ॥ १॥
और चढ़ावत शूल पै, नरक निवासी कूर । इस भव परभव मद्य है, दुखदाई भरपूर ॥२॥ जिन अंगन सों यह कर, औरनके तन खण्ड । तिन अंगन को नरकमें, करहिं असुर शतखण्ड ॥ ३॥ मांस प्राणि भंडार है, निर्दय खात सदीव।' तन रोगी कर मरण है, होवे नारकि जीव ॥ ४ ॥