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जैनसिद्धांतसंग्रह। सार यही है ॥९॥ भोग बुरे भव रोग बढ़ावे. वैरी हैं नग जीके। वे रस होय विपाक समय अति, सेवत लगगें नीके । वन अगिनि विषसे विष घरसे, ये अधिक दुखदाई । धर्मरलके चौर प्रदल अति, दुर्गति पन्य सहाई ॥०॥ मोह उदय यह जीव अज्ञानी, भोग भले कर जाने । ज्यों कोई जन ताय धतूग, सो सब कंचन माने । न्यों • मोग संयोग मनोहर. मन वांछित जन पावे । तृष्णा नागिन त्यों र डके लहर लोम विष लाये ॥ १॥ मैं चक्री पद पाय निरन्तर, भोग भोग घनेर । तोमी ननक भये ना पूग्ण. भोग मनोरथ मेरे ॥ राज समान नहीं अघ कारण, वर बढ़ावन हारा । वेश्यासम लक्ष्मी अति चचल इसका कौन पत्यारा ।१ । मोह महारिपुवर विचारो जगनिय संकट डारे। पर कारागृह वनिता बेड़ी, परनन रखवारे॥ सन्यदर्शन ज्ञान चरण तप, ये जियके हितकारी । ये ही सार असार और सब यह चक्री चित धारी ॥ १६॥ छोड़े चौदह रन नवोनिधि और लोड़े सनसाथी । कोड़ि अठारह घोड़े छोड़, चौरासी लत हाथी ॥ इत्यादिक सम्पति बहुनेरी, नीरण तृणवत त्यागी। नीति विचार नियोगी मुतको, राज्य दियो बड़भागी॥ १७॥ होय निशस्य अनेक नृाति संग. भूषग वसन उतारे । श्रीगुरु चरण धरी जिननुद्रा, पंच महाव्रत धारे ॥ पनि यह समझ सुबुद्धि नगोत्तम, पनि यह धीरज धारी। ऐसी सम्पति छोड़ वसे वन तिनपद घोक हमारी ॥५॥
दोहा-परिग्रह पोठ उतार सब, लीनो चारित:पंय.। - . निन स्वभावमें थिर भये, वजनामि नियुथ ॥ .