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जैन सिद्धांतसंग्रह। पैतिस सोलह षट पन चारों दुइ इक बर्ण विचार । काया तेरी दुखकी ढेरी ज्ञानमई तूं सारे ॥ ८॥ अजर अमर निम गुण सों पूरे परमानन्द सुमावे। आनन्द कन्द चिदानंद साहब तीन जगतपति घ्यावे ॥ क्षुषा तृषादिक होइ परीषह सहै भाव सम राखे । अतीचार पांचो सब त्यागे ज्ञान सुधारस चाख ॥९॥ हाड मांस सव सूखि नाय जब धरम लीन तन त्यागे। अदभुत पुण्य उपाय सुरगमें सेज उठे ज्यों नागे ॥ तहँ ते आवे शिवपद पावे बिलसे सुक्ख अनन्तो। 'धानत' यह गति होय हमारी जैन धरम जयवन्तो ॥१॥
(१४) वैराग्य मावना।
(वजनाभि चक्रवर्ती कृत) दोहा-वीन राख फल भोगवे, ज्यों कृषान जगमाहिं । ।
त्यों चक्री सुखमें मगन, धर्म विसार नाहि ॥ . योगीरासा वा नरेन्द्र छन्द । . .
इस विषि राज्य करै नर नायक, भोगे पुण्य विशाल । सुख सागरम मग्न निरन्तर, जात न जानो काल || एक दिवस शुभ कर्म योगसे, क्षेमंकर मुनि बंदे । देखे श्री गुरुके पद पंकन लोचन अलि आनंदे.॥१॥ तीन प्रदक्षिणा दे शिर नायो, कर पूना स्तुति कीनी । साधु समीप विनयकर बैठो, चरणों में दृष्टि दीनी ।। गुरु उपदेशो धर्म शिरोमणि सुन राना वैरागो । राज्य रमा बनतादिक नो रस, सो सब नीरस लागो ॥२॥ मुनि सुरज