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जैन कथामाला भाग ३१ विद्युत सी कोधी सार्थवाह के मस्तिष्क मे-इसी महापुरुप के पुण्य का प्रभाव है । उसका विश्वास जम गया । ____ कुमार वसुदेव ने देखा कि सार्यवाह हिसाव निला चुका है। अब वह दूकान बन्द करके घर जाने वाला है तो बोले
-सेठजी | आपकी बडी कृपा हुई । अब मैं चलता हूँ। ध्यान भग सा हुआ सार्थवाह का तुरन्त पूछ बैठा-कहाँ जाओगे, इस समय ? । -कही भी पडकर सो रहूँगा।-वसुदेव ने तुरन्त उत्तर दिया।
-नही, नहीं, कही जाने की आवश्यकता नहीं। आज से तुम मेरे साय ही रहोगे। __वसुदेव को क्या एतराज था। उन्हे तो परदेश में किसी आश्रय की आवश्यकता थी ही । सार्थवाह ने भी अपना सवसे सुन्दर रथ मँगाया और उसमे बिठाकर अपने घर ले गया। कुछ दिन बाद उसने अपनी पुत्री रत्नवती का विवाह भी उनके साथ कर दिया। जिस पुरुष से लाभ हो, उसका सम्मान तो किया ही जाता है।
एक वार इन्द्र महोत्सव के समय वसुदेव अपने ससुर (सार्थवाह) के साथ एक रथ मे बैठकर महापुर नगर गये। नगर के बाहर ही अनेक प्रासाद बने हुए थे । वसुदेव ने पूछा
- क्या यह कोई दूसरा नगर है ? सार्थवाह से उत्तर दिया
-~-नही, यह दूसरा नगर तो नही है। ये प्रासाद तो निमत्रित राजाओ के लिए बनाए गये थे।
-निमत्रण किस लिए?
-राजकन्या के स्वयवर हेतु ।—सार्थवाह ने आगे बताया-यहाँ का राजा है सोमदत्त और उसकी एक युवती पुत्री है सोमश्री। उसी के स्वयवर के लिए ये अनेक राजा निमत्रित किये गये थे। किन्तु उनके अचातुर्य के कारण उन्हे विदा कर दिया और अब ये महल