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स्व-कथ्य
वासुदेव श्रीकृष्ण भारतीय संस्कृति के ही नहीं, अपितु विश्व संस्कृति के एक महापुरुष है । धर्म और राजनीति — दोनो ही क्षेत्रो मे उनका विशिष्ट अवदान रहा है ।
जैन परम्परा मे तिरेसठ शलाका (विशिष्ट) पुरुष बताये गये है, उनमे जहाँ भगवान आदिनाथ, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ और भगवान महावीर की गणना की गई है वही भरत चक्रवर्ती, मर्यादा पुरुषोत्तम राम और वासुदेव श्रीकृष्ण के नाम भी सम्मिलित है । श्रीकृष्ण नवम वासुदेव और वलभद्र नवम वलदेव हुए है। जैन आगमो व पश्चात्वर्ती साहित्य मे वासुदेव श्रीकृष्ण के कर्मयोगी जीवन के विविध प्रसग आते है । घटनाओ व प्रसगो की दृष्टि से श्रीराम के जीवन से भी अधिक घटनाएं श्रीकृष्ण के जीवन की जैन आगम - साहित्य मे मिलती हैं । जैन आगमगत वर्णन का अध्ययन करने से वासुदेव श्रीकृष्ण का उदात्त जीवन एक कर्मयोगी के रूप में सामने आता है । वे न्यायनिष्ठ, सत्यवादी, प्रजावत्सल, महान पराक्रमी और परम नीतिनिपुण तो है ही, इसी के साथ महान धर्मप्रेमी, उदार, सहिष्णु, गुणज्ञ, मित्रसहायक और अनीति के कट्टर विरोधी, महान शासक भी है ।
जैन परम्परा एव हिन्दू परम्परा मे, श्रीकृष्ण के जीवन विपयक, व्यक्तित्व विपयक मतभेद भी है और समानताएँ भी । मतभेद होना कोई बुरी बात नहीं है, यह विचार स्वातंत्र्य का सूचक है, जो भारतीय सरकृति की अपनी गाश्वत गरिमा है। जैन परम्परा मे दर्शन की दृष्टि से आत्मा के विकास की अनन्त सभावनाएँ है । आत्मा परमात्मा वनता है, किन्तु परमात्मा, भगवान या ईश्वर कभी आत्मा के रूप मे धरा पर पुन जन्म धारण कर अवतार नही लेता । जवकि हिन्दूधर्म