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जैन कथामाला भाग १
समुद्रविजय ने अपनी योजना समझाई
-तुम चिन्ता मत कगे कुमार | मै पहले ही निर्णय कर चुका हूँ। कह देना कस ने ही सिहग्य का पराभव किया है। इसीलिए लो भेजा था उसे तुम्हारे साथ। ___अग्रज की दूरदर्शिता और चतुराई से कुमार प्रभावित हुए। किन्तु अपने हृदय की शका उन्होने कह डाली
-परन्तु कस तो वैश्य पुत्र है, और जरासंध क्षत्रिय । वह अपनी कन्या इसे देगा ही क्यो?
यह समस्या वास्तव मे गभीर थी। क्षत्रिय अपनी पुत्री वैश्य को नही देते—यह परम्परा है। समुद्रविजय कुछ क्षण मौन होकर सोचते रहे फिर वोले
-बात तो तुम ठीक कह रहे हो परन्तु कस की प्रवृत्तियाँ तो क्रूर है, वणिकवृत्ति उसमे विल्कुल भी नहीं है। ___ -हाँ है तो यही बात | युद्धभूमि मे उसकी निर्भीकता, साहन
और पराक्रम को देखकर कोई भी उसे वैश्य-पुत्र नही मान सकता। मुझे तो ऐसा प्रतीत हुआ मानो वह क्षत्रिय-पुत्र ही हो । उसके जन्म के सम्बन्ध मे कोई रहस्य तो नहीं है ?
एक नई राह मिली समुद्रविजय का। तुरन्त रसवणिक मुभद्र को बुलाया गया।
सुभद्र आया तो समुद्रविजय ने उससे छटते ही प्रश्न कर दिया-सेठ । कस किसका पुत्र है ?
प्रश्न अचानक था और वह भी राजा द्वारा किया गया । कॉप गया रसवणिक । उसके मुख से आवाज ही नही निकल सकी।
-बोलते क्यो नही ?-राजा की आवाज फिर गूंजी।
-ज ज जी महाराज | हकलाते हुए सेठ के सुख से निकला।
राजा समझ गये कि सेठ घवडा गया है । उन्होने स्वर को मधुर वनाते हुए आश्वस्त किया