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उसके साथ उसका वालक भी था । उनके रूप को देखकर महिला बेभान हो गई । घडे के गले मे रस्सी का फदा लगाने के बजाय उसने फदा बच्चे के गले मे डाल दिया । बलभद्र मुनि ने यह अनर्थ देखा तो महिला को सचेत किया और उलटे पैरो वन की ओर लौट गए । उन्होंने इस दृश्य को देखकर अपने रूप को धिक्कारा - 'वह रूप निकृष्ट है जो ऐसे महान अनर्थ का कारण वने । ' उन्होने अभिग्रह ग्रहण किया- 'मैं आज से किसी भी ग्राम और नगर मे प्रवेश नही करूँगा । जगल मे ही यदि निर्दोप भिक्षा मिल जायगी तो ग्रहण करूंगा ।'
महाभयानक वन मे ऐसे दिव्य तेजस्वी सन्त को देखकर सभी आनेजाने वाले चकित थे । उनके मानस मे भाँति-भाँति के प्रश्न उठतेयह कौन है ? कहाँ से आया है ? किसी मत्र-तत्र की साधना कर रहा है अथवा देवी - देवता की ? जिज्ञासा ने सदेह का रूप धारण किया और किसी काष्ठ ले जाने वाले ने अपनी शका राजा को कह सुनाई । राजा ने तुरन्त सेना सजाई और चल दिया वलभद्र मुनि को मारने ।
चतुरगिणी सेना निस्पृह श्रमण के हनन के लिए वनप्रान्तर को कँपाती हुई चल दी। तभी सिद्धार्थ देव को यह सव अवधिज्ञान के बल से ज्ञात हुआ । उसने अपनी शक्ति से अनेक सिंह विकुर्वित कर दिए । सिंहो की इस सेना को देखते ही राजा भयभीत हो गया । उसने मुनिश्री के चरण पकड लिए । वार-बार अपने अपराध की क्षमा माँगने लगा । उसकी दीन - याचना से सतुष्ट होकर देव ने अपनी माया समेट ली और राजा नगर को वापिस लौट आया ।
अहिसा सवको निर्भय बनाती है, शत्रुभाव का नाश करती है । वलभद्र मुनि के आस-पास भी वन के पशु पारस्परिक वैर-भाव भूलकर विचरण करने लगे। एक मृग तो जातिस्मरणज्ञान से अपने पूर्वभवो को जानकर उनका भक्त ही वन गया । वह जंगल मे इधर-उधर घूमता और जहाँ भी निर्दोष आहार प्राप्ति की आशा होती वही उन्हे सकेत से ले जाता |