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श्रीकृष्ण-कथा - द्वारका दाह
और नौ योजन चोडी वासुदेव की नगरी द्वारका धू-धू करके जल रही थी। जिस नगरी को वासुदेव ने अपने तप के प्रभाव से सुस्थित देव द्वारा निर्मित कराया था । कुबेर ने जिसे अनुपम रत्नो और अक्षय । कोपो से परिपूर्ण किया था । जो इन्द्रपुरी से होड लगाती थी । जिसकी समृद्धि और सम्पन्नता समस्त दक्षिण भरतार्द्ध मे विख्यात थी । वही द्वारका अग्नि- लपटो में घिरी हुई थी ।
वासुदेव के दिव्य अस्त्र-शस्त्र जो उनके पुण्य योग से प्रकट हुए थे, उनके दिव्य आभूषण, वस्त्र सब कुछ अग्नि मे स्वाहा हो रहा था । यह था मद्यपान का भयकर दुष्परिणाम |
निराग और विवश कृष्ण-बलराम नगर से बाहर निकलकर जीर्णोद्यान मे खडे हो गए और द्वारका को जलती हुई देखने लगे । कृष्ण अत्यन्त दुखी स्वर मे वोले
- भैया । मुझ से अब यह विनाशलीला नही देखी जाती । कही और चलो।
फिर कुछ सोचकर स्वयं ही वोले
- किन्तु कहाँ जाएँ अनेक राजा तो हमारे विरोधी हो गए है ? - पाडव हमारे परम-स्नेही है । उन्ही के पास चलना चाहिए । - वलराम ने सुझाया ।
- मैंने उन्हे भी निष्कासित कर दिया था। क्या वहाँ चलना उचित होगा ? -- कृष्ण ने शका की ।
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- तुम इन गंका को हृदय से निकाल दो । पाडव हमारा स्वागत ही करेगे, निश्चिन्त रहो । - वलराम ने उत्तर दिया ।
वलराम की इच्छा स्वीकार करके कृष्ण पाण्डुमथुरा जाने के लिए नैऋत्य दिशा की ओर चल दिए ।
जिस समय द्वारका जल रही थी तो बलराम का पुत्र कुब्जावारक महल की छत पर जा खडा हुआ । वह जोर-जोर से कहने लगा
- इस समय मैं भगवान अरिष्टनेमि का व्रतवारी शिष्य हूँ । भगवान ने मुझे चरम शरीरी और इसी भव से मोक्ष जाने वाला