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जैन कथामाला भाग ३३ उसने भक्तिपूर्वक मोदक वहरा दिए। भिक्षा लेकर मुनि भगवान के चरणो मे पहुँचे और विनम्रतापूर्वक जिज्ञासा की
-प्रभो ! क्या मेरा अन्तराय कर्म क्षीण हो गया है ? क्या यह भिक्षा मेरी अपनी लब्धि की है ?
भगवान ने बताया
-न तो तुम्हारा अन्तराय कर्म क्षीण हुआ और न ही यह भिक्षा स्व-निमित्त की है। श्रीकृष्ण के प्रभाव से तुम्हे इसकी प्राप्ति हुई है। __मुनि ने सुना तो विना चित्त मे खेद किए एकान्त प्रासुक स्थान मे पहुँचे। विवेक से मोदको को परठने (डालने) लगे। विचार शुद्ध से शुद्धतम हो गए । घनघाती कर्म की जजीरे टूट गई । उन्हे अक्षय केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। तब वे भगवान की प्रदक्षिणा कर केवलि परिषद् मे जा बैठे।
[४] थावच्चापुत्र थावच्चापुत्र का यह नाम उसकी माता के नाम पर पड़ा। माता का नाम था थावच्चा अत पुत्र का नाम हो गया-थावच्चापुत्र । वह किसी सार्थवाह का पुत्र था। किन्तु था वचपन से ही गभीर चिन्तक । एक बार पडौस मे मगल गीतो की ध्वनि सुनाई पडी तो माँ से पूछा
-ये कर्णप्रिय मधुर गीत क्यो गाए जा रहे है ? -पडौस मे वालक का जन्म हुआ है, इसलिए। -माँ ने बताया। बालक थावच्चापुत्र बड़े मनोयोग से सुनने लगा। एकाएक मधुर गायन आक्रन्दन मे परिणत हो गया। उसने पुन. पूछा
-माँ | यह आक्रन्दन कैसा? वडा भयानक लग रहा है। आँखो मे आँसू भरकर माँ ने बताया
-अभी-अभी जिस वालक का जन्म हुआ था उसकी मृत्यु हो गई है।
माँ ! लोग जन्म पर गाते और मृत्यु पर रोते क्यो हैं ? .