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श्रीकृष्ण-कथा--कुछ प्रेरक प्रसग
यह सोचकर कृष्ण ने उसके विवाह का विचार किया किसी राजा स नहीं, वरन् साधारण पुरुष से । उन्हे आस-पास वीरक कौलिक ही दिखाई दिया। एकान्त मे उससे पूछा--
तुमने कोई वीरता का कार्य किया हो तो बताओ। -मैंने तो ऐसा कार्य कोई नहीं किया जो कहने योग्य हो। -विनम्रतापूर्वक कौलिक ने उत्तर दिया ।
याद करो कुछ तो किया ही होगा ? -वासुदेव ने जोर दिया। वीरक याद करके बताने लगा-एक वार मैंने वृक्ष पर बैठे रक्त मुख नाग को पत्थरो से मार डाला था। गाड़ियो के पहियो से बनी हुई नालियो के वहते हुए गन्दे पानी को वाएँ पाँव से रोक दिया था और एक बार बहुत सी मक्खियाँ एक घडे मे घुस गई थी तव मैंने अपने हाथ से उस घडे का मुंह वन्द कर दिया और वे मक्खियाँ फड़फड़ाती रही।
उसके इन कृत्यो का वखान करते हुए कृष्ण ने अपनी सभा मे कहा___ - वीरक ने अपने जीवन मे जो कार्य किये हैं वे इसकी जाति के गौरव से बढकर है। इसने एक बार भूमि शस्त्र से रक्त फन वाले नाग को मार दिया। चक्र से खोदी हुई, कलुषित जल को वहन करने वाली गगा नदी को अपने पैर से ही रोक दिया । घटनगर में रहने वाली घोष करती हुई विशाल सेना को वाएँ हाथ से रोके रखा। इन कार्यो को करने वाला निस्सन्देह क्षत्रिय है । इसलिये मैं अपनी पुत्री केतुमजरी इसे देता हूँ। ___ केतुमजरी का विवाह वीरक से हो गया।
एक दिन कृष्ण ने वीरक से पूछा
- कहो भद्र | केतुमजरी उचित रूप से पत्नीधर्म का निर्वाह तो । करती है ? तुम्हारी सेवा तो करती है, न ।
-कहाँ महाराज ? वह तो आदेश देती रहती है, सेवा करने का कार्य तो मेरा है । वीरक ने कह ही दिया ।