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जैन कथामाला . भाग ३३
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को दी और स्वय मुनि की पूजा करने लगा। उसी समय मगी ने तलवार का प्रहार अपने पति वज्रमुष्टि पर किया किन्तु सूरसेन ने उसे अपने हाथ पर रोक लिया । उसकी अगुलियां कट गई। वज्रमुष्टि ने मगी से कहा-'प्रिये । डरो मत ।' वह मगी की कुटिलता को न समझ पाया।
तब तक सूरसेन के छहो भाई चोरी करके लौट आए और उसे उसका भाग देने लगे । सूरसेन ने कहा-'मुझे धन नहीं चाहिए मैं तो सयम लेता हूँ।' भाइयो के आग्रह पर उसने अपने वैराध का कारण वता दिया। सभी भाइयो ने धन अपनी स्त्रियो को दिया और वरधर्म मुनि के पाम प्रव्रजित हो गए । स्त्रियाँ भी विरक्त होकर आर्या जिनदत्ता के पास दीक्षित हो गई ।
अन्यदा ये मातो ही मुनि उज्जयिनी नगरी मे आए तो वज्रमुष्टि उनके वैराग्य का कारण जानकर वरधर्म मुनि के पास प्रवजित हो गया। उन अजिकाओ से वैराग्य का कारण जान कर मगी भी साध्वी हो गई।
वे मातो भाई मरकर पहिले स्वर्ग मे देव हुए। वहाँ से च्यवकर घातकीखण्ड के पूर्व भरतक्षेत्र मे विजयाद्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी के नित्यलोक नगर के राजा चित्रशूल और रानी मनोहारी के सुभानु का जीव चित्रागद नाम का पुत्र हुआ। वाकी छह भाई भी दो-दो करके तीन वार मे इन्ही राजा चित्रशूल के पूत्र हए। उनके नाम गरुडध्वज, गरुडवाहन, मणिचूल, पुष्पचल, गगानदन और गगनचर थे। इसी श्रेणी के मेघपुर नगर मे राजा धनजय राज्य करता था। उसकी पुत्री का नाम धनश्री था। उसी श्रेणी के नदपर नगर के स्वामी हरिषेण का पुत्र था-हरिवाहन। धनश्री का स्वयवर अयोध्या नगरी (धातकी खड के पूर्व मरतक्ष त्र की) मे किया गया । अयोध्या के चक्रवर्ती नरेश पुप्पदत्त का पुत्र मुदत्त वडा पापी था। धनश्री ने हरिवाहन के गले मे वरमाला डाली किन्तु सुदत्त ने उसी समय हरिवाहन को मारकर धनश्री को छीन लिया । यह देखकर सातो भाई विरक्त हुए और भूतानन्द तीर्थंकर के चरणो मे प्रव्रजित हो गए। सातो ही सयमपूर्वक देहत्याग कर चौथे स्वर्ग में सामानिक देव हुए।