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जैन कथामाला भाग ३३
के बल से अनिरुद्ध युद्ध करने लगा। जब काफी देर हो गई और अनिरुद्ध पर बाण विजय प्राप्त नही कर पाया तो नागपाश मे उसे बाँध लिया | अनिरुद्ध विवग हो गया । वाण ने व्यग किया -
- तुम्हारी तो कुल परम्परा ही है, कुमारियो का हरण करना । यही तुम्हारे प्रपिता कृष्ण ने किया, यही प्रद्युम्न ने और अंव तुम भी उसी राह पर चले हो । किन्तु अब बन्दीगृह की हवा खाओ । नागपाश में बँधा अनिरुद्ध कुछ उत्तर न दे सका ।
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इधर जव प्रात काल अनिरुद्ध शय्या पर नही मिला तो सभी को चिन्ता हुई । प्रज्ञप्ति विद्या ने वासुदेव को बताया कि 'अनिरुद्ध तो नागपाश मे जकड़ा शुभनिवासपुर के वन्दीगृह मे पड़ा है ।'
पौत्र रक्षा हेतु श्रीकृष्ण वड़े भाई बलराम और पुत्र प्रद्य ुम्न, आदि के साथ बडी सेना लेकर चल दिए । वाण भी युद्ध हेतु निकल आया । उसने कटूक्ति की
- दो चोर तीसरे चोर का पक्ष लेकर आए है ।
- हम किसी का कुछ नही चुराते । - वासुदेव ने कटूक्ति का उत्तर गम्भीरता से दिया ।
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- स्त्रियो को चुराना - यह तुम्हारा काम नही है क्या - मिथ्या कहते हो विद्याधर ! हम कभी किसी स्त्री को उसकी इच्छा विना वलात नही लाए ।
-- उसकी न सही, पिता-परिवारीजनो की इच्छा बिना ही तो लाते हो ।
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- नही, उनकी भी स्वीकृति से ।
- किन्तु यह नीति यहाँ नही चलेगी । जानते नही शकरदेव के वरदान से मैं अजेय हूँ ।
- साधारण देव का वरदान सृष्टि का नियामक नही । शस्त्र उठाओ और देखो कोन अजेय है
।
वासुदेव ने चुनौती दे दी ।
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