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जैन कथामाला भाग ३३
-अहीरन मेरे साथ आओ, मुझे गोरस लेना है।
आगे-आगे गाव चल दिया और पीछे-पीछे अहीरन । एक देवालय मे शाव घुस गया किन्तु अहीरन द्वार पर ही खडी रह गई। शाव ने कहा
-अन्दर आ जाओ। यहाँ तुम्हारा सम्पूर्ण गोरस खरीद लूंगा। । -नही, यही से लेना हो तो लो, अन्यथा मैं चली।
गाव ने लपक कर उसका हाथ पकडा और घसीटता हुआ वोला-~-चली कैसे जायेगी, मुझसे वचकर ? तभी अहीर भी आ पहुंचा और बोला-कौन दुष्ट मेरी स्त्री का हाथ पकड रहा है ?
शाव की दृष्टि ज्यो ही अहीर की ओर उठी तो उसे पिता श्री कृष्ण दिखाई दिए और अहीरन माता जाववती। माता-पिता को देखकर शाव मुंह छिपा कर वहाँ से भाग गया । किन्तु माता को अपने पुत्र के दुश्चरित्र का पता अवश्य लग गया। पुत्र की दुश्चेष्टा से माता का मुख नीचा हो गया।
दूसरे दिन कृष्ण ने बलपूर्वक शाव को अपने पास बुलाया तो वह एक काठ की कीली बनाता हुआ उनके समक्ष 'आकर खडा हो गया। इस विचित्र चेष्टा को देखकर कृष्ण ने पूछा
--कीली किस लिए बना रहे हो?
-जो कल की वात मुझसे करेगा, उसके मुख मे ठोकने के लिए। - ऐसे निर्लज्जतापूर्ण उत्तर की आगा कृष्ण को स्वप्न मे भी नही थी । उससे अधिक बात करना व्यर्थ समझ कर उन्होने उसे नगरी से वाहर निकाल दिया । पूर्वभव के स्नेह के कारण प्रद्युम्न ने नगर से वाहर जाते समय उसे प्रजाप्ति विद्या दी। विद्या लेकर शाव चला गया।
गाव के जाने पर भी भीरुक की परेशानी खतम न हुई। अब उसे प्रद्युम्न तग करने लगा। एक दिन सत्यभामा ने प्रद्युम्न को उलाहना देते हुए कहा