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________________ २४८ जैन कयामाला : भाग ३३ -नही माँ । निश्चिन्त रहो । सव कुछ मामा की स्वीकृति से ही होगा। माता की आज्ञा पाकर प्रद्युम्न और शाव दोनो भोजकटनगर जा पहुँचे । एक ने किन्नर का रूप बनाया और दूसरे चाडाल का। दोनो गलियो मे सगीत कला का प्रदर्शन कर जनता का मन मोहने लगे। उनकी कला की प्रशसा सुनकर रुक्मि ने उन्हे राजसभा में बुलाया और गाना सुनने की इच्छा प्रकट की। उसी समय उसकी पुत्री वैदर्भी भी वहाँ आ गई। दोनो ने अपनी सगीत कला से सव को प्रसन्न कर लिया। प्रभूत पारितोपक देकर रुक्मि ने पूछा -तुम लोग कहाँ से आए हो? -हम आकाश मार्ग से द्वारका नगरी आए जहाँ श्रीकृष्ण राज्य कर रहे है। वैदर्भी बीच मे ही बोल पडी-क्या तुम रुक्मिणी-पुत्र प्रद्युम्न को जानते हो ? ---कामदेव के समान सुन्दर और महापराक्रमी प्रद्युम्न को कौन नही जानता ? प्रद्युम्न की प्रशसा सुनकर वैदर्भी के हृदय में अनुराग उत्पन्न हुआ। वह आगे कुछ पूछती इससे पहले ही हस्तिशाला के अधीक्षक ने आकर कहा-- -~महाराज | अपका निजी हाथी उन्मत्त होकर हस्तिशाला से भाग निकला है। . तुरन्त ही हाथी को वश मे करने के प्रयास किए गए किन्तु कोई भी उसे वश मे न कर सका तव राजा ने उद्घोपणा कराई कि 'जो कोई हाथी को वश मे करेगा उसे मुहमॉगा पुरस्कार मिलेगा।' किन्तु इस घोषणा का भी कोई प्रभाव न हुआ। कोई व्यक्ति हाथी पकडने के लिए तैयार न हुआ। उसका उपद्रव बढ़ता ही जा रहा था। तब प्रद्य म्न ने यह घोषणा स्वीकार की और अपनी सगीत कला से हाथी को निर्मद कर दिया।
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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