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जैन कथामाला भाग ३३
- जिस स्त्री को तुम जैसे पुत्र की इच्छा हो, उसे यह हार पहना कहकर नैगमेषी देव ने एक हार दिया और
कर सेवन करो ।" अन्तर्धान हो गया ।
प्रसन्न होकर कृष्ण ने सत्यभामा को अपने शयन कक्ष में आने का निमन्त्रण भिजवाया ।
पिता को प्रौषध करते देखकर तो प्रद्युम्न को आश्चर्य नही हुआ किन्तु विमाता को गयन कक्ष मे निमन्त्रण अवश्य रहस्यमय लगा । तुरन्त प्रज्ञप्ति विद्या से पूछा । सच्चाई जानकर प्रद्युम्न माता से बोला
- माँ ! मेरे जैसे पुत्र की इच्छा हो तो वह हार ले लो । - रुक्मिणी ने उत्तर दिया
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- पुत्र । मैं तो एक तुम से ही कृतार्थ हूँ। मुझे दूसरे पुत्र की कोई इच्छा नही क्योकि स्त्री रत्न को बार-बार प्रसव उचित नही है । -यदि तुम्हारी कोई प्रिय सपत्नी हो तो मैं उसकी इच्छा पूर्ण
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करू ।
कुछ समय तक सोचने के बाद रुक्मिणी ने कहा
- हाँ बेटा । जब मै तुम्हारे वियोग मे दुखी थी तो जाबवती ने सहानुभूति दिखाई थी । वह मुझे अधिक प्रिय है ।
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- तो उसे बुलाओ ।
जावती पुलाई गई । प्रद्युम्न ने उसका रूप अपने विद्या बल से सत्यभामा का सा बना दिया और सम्पूर्ण योजना समझा कर उसे श्रीकृष्ण के शयन कक्ष में पहुँचा दिया । कृष्ण ने उसे भामा समझकर हार पहिनाया और मुखपूर्वक क्रीडा की । जाववती उठकर इठलाती चली आई |
कुछ समय पञ्चात् सत्यभामा ने शयनकक्ष मे पदार्पण किया । उसे देखकर कृष्ण सोचने लगे- 'अहो | स्त्रियो मे काम की कैसी अधिकता ! अभी-अभी तो यहाँ से गई थी, फिर भी मन नही भरा, पुन लीट आई ।' किन्तु कहा कुछ भी नही । उसके साथ क्रीड़ा करने लगे ।