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जैन कथामाला भाग ३२ -हाँ मैंने सोलह वर्ष तक निराहार तप किया है । उसी के पारणे के निमित्त तुम्हारे महल मे आया हूँ। ___-सोलह वर्ष का निराहार तप 1 मैने तो एक वर्ष से अधिक का निराहार तप सुना ही नहीं |-चकित थी रुक्मिणी । ___-इससे तुम्हे क्या मतलब ? कुछ देने की इच्छा हो तो दो। नहीं तो मैं चला सत्यभामा के महल मे। -किशोर साधु ने उठने का उपक्रम किया।
क्षमा-सी माँगती हुई रुक्मिणी बोली--आज मेरा चित्त वहुत दुखी है । मैंने कुछ बनाया ही नही । ---क्यो ? किस कारण दुखी हो तुम ?
-~-पुत्र वियोग मे । सोलह वर्ष पहले मेरा पुत्र बिछुड गया था। उससे मिलने के लिए कुलदेवी को आराधना की। आज प्रात निराश होकर शिरच्छेद करने लगी तो देवी ने बताया 'जब अकाल ही तुम्हारे ऑगन मे लगे आम्रवृक्ष पर फल आ जायें तभी पुत्र से तुम्हारा मिलन हो जायगा।' आम के वृक्ष पर फल भी आ गये किन्तु पुत्र नही आया । साधुजी । आप तो तपस्वी है, कुछ विचार करके वताइये।
-~-खाली हाथ पूछने से फल प्राप्ति नहीं होती। --तो आप को क्या हूँ?
-कहा न, सोलह वर्प से निराहार हूँ। पेट पीठ से लग गया है । खीर बना कर खिला दो। __रुक्मिणी ने खीर बनाने की तैयारी की तो उसे सामग्री ही न मिली। हार कर कृष्ण के लिए जो विशेप मोदक रखे थे उनकी खीर वनाने को उद्यत हुई किन्तु अग्नि ही प्रज्वलित न कर सकी। साधु वोला
--तुम न जाने किस आरम्भ मे पड गई । मेरे तो भूख के मारे प्राण निकले जा रहे है । इन मोदको को ही खिला दो।
-यह तो सिवा श्रीकृष्ण के और कोई हजम ही नहीं कर सकता । मैं तुम्हे खिला कर ऋषि-हत्या का पाप नही कर सकती।