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________________ श्रीकृष्ण-कथा-सोलह मास का फल सोलह वर्ष २१३ यह सुनकर काणा की जिज्ञासा और भी तीव्र हो गई। यह वार-बार आग्रह करने लगी । तव मुनि ने उसे उसके पूर्वभव सुना दिये। ___ मुनिराज के प्रति अपनी जुगुप्सा के कारण काणा को वडा पञ्चात्ताप हुआ। वह बार-बार स्वय को धिक्कारने लगी। सुनिश्री से उसने वारम्वार क्षमा मांगी। ____ काणा परम श्राविका हो गई। मुनिश्री ने उसे धर्मश्री नाम की आर्या को सौप दिया। वह आर्याजी के साथ विहार करते हुए सद्धर्म का पालन भली-भॉति करने लगी। एक वार किसी गाँव के नायल नाम के श्रावक को आर्याजी ने उसे सौंप दिया। नायल के आश्रय मे रहती हुई श्राविका काणी एकातर उपवास करती हुई अर्हन्त आराधना मे लीन रहती। अन्त समय मे अनशन पूर्वक मरण करके वह अच्युत इन्द्र की इन्द्राणी बनी । वहाँ से आयुष्य पूर्ण करके वह रुक्मिणी हुई है। हे नारद । मयूरी के बच्चे को सोलह मास तक माता विछोह कराने के कारण इसने जो तीव्र असाता का वध किया था उसका फल रुक्मिणी को भोगना ही पडेगा क्योकि किये हुए कर्मो का फल भोगना ही सासारिक जीव की नियति है। . . . . इतना कहकर प्रभु सीमधर स्वामी मौन हो गए। .- -. नारद की जिज्ञासा भी शात हो चुकी थी। अत उन्हें श्रीकृष्ण को; दिए हुए वचन का स्मरण हो आया.। केवली भगवान को नमनवन्दन करके नारद विदेह क्षेत्र से, चले तो सीधे वैताढ्य गिरि-पर जा पहुँचे। .. 'मेघकूटनगर की राजसभा मे नारद पधारे तो विद्याधर कालसवर ने उनका हार्दिक स्वागत किया। नारद ने पूछा--विद्याधर | बहुत प्रसन्न हो । -हॉ देवर्षि | आपकी कृपा से मुझे पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई है !
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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