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श्रीकृष्ण-कथा-सोलह माम का फल नोलह वर्ष लाई । घर लाकर उसने उसे पिजरे मे रख दिया। लक्ष्मीवती उसे बड़े प्रेम से अन्न-पान आदि खिलाती और सुन्दर नृत्य करने की शिक्षा देती। __ लक्ष्मीवती तो मोर का वच्चा पाकर मगन थी किन्तु मोरनी अपने शिशु से बिछुड कर विह्वल । वह रात-दिन रोती। उसके आक्रन्दन से द्रवीभूत होकर नगर-निवासियो ने लक्ष्मीवती के पास आकर कहा
-तुम्हारा तो खेल हो रहा है और वह वेचारी मोरनी मरी जा रही है। उसके बच्चे को छोड दो। __लोकनिन्दा के भय से लक्ष्मीवती उस मोर के बच्चे को छोड़ने को तत्पर हो गई। उसने वह बच्चा उसकी माता के पास जाकर छोड दिया । मोर का नवजात शिशु अव सोलह मास का युवा हो चुका था।
उस समय लक्ष्मीवती ने सोलह वर्ष के पुत्र-वियोग का घोर असाता वेदनीय और अन्तराय कर्म वाँधा।। - एक समय लन्मीवती अपने सुन्दर रूप को दर्पण मे देख रही थी। उसी समय मुनि समाविगुप्त भिक्षा के लिए उसके घर मे आए। उन्हे देखकर उसके पति सोमदेव ने कहा
-भद्रे । मुनिराज को भिक्षा दो।
उसी समय सोमदेव को किसी अन्य पुरुप ने बुला लिया और वह चला गया। ___ अपने शृङ्गार मे बाधा पड़ने के कारण लक्ष्मीवती कुपित तो हो ही गई थी। पति की अनुपस्थिति में उसने घृणापूर्वक मुनिश्री को कठोर वचन कहकर घर से निकाल दिया और शीघ्र ही दरवाजा वन्द कर लिया। ___मुनि-जुगुप्सा के तीन पाप के फलस्वरूप उसे सातवे दिन गलित कुष्ट रोग हो गया । रोग की वेदना से वह छटपटाने लगी । जव वेदना असह्य हो गई तो वह अग्नि मे जल मरी । आर्त परिणामो के कारण उसी गाँव मे घोवी के घर मे गधेड़ी हुई,। वहाँ से मरी तो विष्टा