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भी महापुरुष के जीवन की समस्त घटनाओ का आकलन- सकलन एक लेखक अथवा एक परपरा के लिए सभव भी नही हो पाता। इसका कारण मानव की स्वयं की ज्ञान चिन्तन की सीमाएँ भी हैं, उसकी स्वय की दृष्टि भी है और परपरा का बन्धन भी है। वैदिक परपरा मे वे विष्णु के पूर्ण अवतार होते हुए भी अनेक ऐसे कार्य करते है जिन्हे सामाजिक दृष्टि से बालसुलभ चचलता ही कहा जा सकता है । उदाहरणस्वरूप-यमुना मे स्नान करती हुई स्त्रियो के चीर हरण कर लेना, दूध-दही - मक्खन चुराकर खा जाना । इस प्रकार की घटनाओं के चित्रण मे पश्चात्वर्ती कवियो की स्वय की रसिक वृत्ति ही अधिक प्रगट हुई है । एक रीतिकालीन कवि ने लिखा है
आगे के सुकुवि रीभिहैं तो कविताई,
नहि तो राधा हरि सुमिरन को बहानो हे ।
और यह बहाना इतना अधिक वढा कि कृष्ण एक सामान्य नटवर नन्द - किशोर ही बन कर गए। उनका गौरवमयी रूप विद्वानो और उच्च कोटि के ग्रन्थो तक ही सीमित रह गया ।
जैन लेखको ने उनके गौरव की आद्योपान्त रक्षा की है ।
श्रीराम और श्रीकृष्ण की तुलना
तुलना की ही भार
यहाँ यह अप्रानगिक न होगा कि श्रीराम मे श्रीकृष्ण की जाय। दोनो ही महापुरुष मानव जाति की महान विभूति है । दोनो तीय मस्कृति के आधार स्तम और जन-जन के कण्ठहार है । दोनो ने ही अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष किया और धर्म की न्याय की स्थापना की। श्रीराम ने लकापति रावण का समूल विनाश करके पर-स्त्री हरण की लोकनिन्द्य परपरा का नाश किया तो कृष्ण ने कम का वध करके निरपराध देवको-वसुदेव को बन्दीगृह में रखने और उनके छह पुत्रो की अकारण हत्या का विरोध किया और एक निरकुण आततायी शासक को ममाप्न कर प्रजा की रक्षा की ।
किन्तु इन दोनो की परिस्थितियो में भिन्नता थी । राम राजपुत्र थे, उनका जन्म राजमहल मे हुआ और वन-वास में पहले उन्हे किमी प्रकार का