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श्रीकृष्ण - कथा - रक्मिणी परिणय
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को आते देखकर रुक्मिणी वेदिका से उठकर द्वार पर आ खडी हुई और पति से पूछने लगी
- नाथ ! अभी-अभी थोडी देर पहले मुझे किसने नमन किया ? कृष्ण ने सत्यभामा की ओर संकेत करके कहा
- मेरी प्रिया सत्यभामा ने |
- मैं क्यो इमे नमन करूंगी ?
――
- सत्यभामा बीच मे ही वोल
पडी ।
- क्यो ? तुमने अपनी बहन को नमन किया, इसमे क्या बुराई है ? – कहकर कृष्ण हंस पड़े और रुक्मिणी के होठो पर मुस्कराहट फैल गई ।
सत्यभामा ने ध्यानपूर्वक रुक्मिणी की ओर देखा और फिर वैदिका की ओर । वेदिका रिक्त थी । मत्यभामा सव कुछ समझ गई और जीझ कर बोली
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- तो यह बात है ? अब समझी। आप दोनों का मिला-जुला षड्यन्त्र | मौत के सामने मेरा सिर झुकाने का अच्छा स्वांग रचा, तुम दोनो ने । - सत्यभामा रूठ गई ।
कृष्ण ने मनाने का बहुत प्रयास किया किन्तु वह मानी नही । वह अपने महल मे चली गई और रुक्मिणी अपने महल मे । वासुदेव ने रुक्मिणी को बहुत ममृद्धि दी और पति-पत्नी प्रेम रस मे निमग्न हो
गए ।
— त्रिपटि० ८६