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________________ श्रीकृष्ण - कथा - रक्मिणी परिणय १८७ को आते देखकर रुक्मिणी वेदिका से उठकर द्वार पर आ खडी हुई और पति से पूछने लगी - नाथ ! अभी-अभी थोडी देर पहले मुझे किसने नमन किया ? कृष्ण ने सत्यभामा की ओर संकेत करके कहा - मेरी प्रिया सत्यभामा ने | - मैं क्यो इमे नमन करूंगी ? ―― - सत्यभामा बीच मे ही वोल पडी । - क्यो ? तुमने अपनी बहन को नमन किया, इसमे क्या बुराई है ? – कहकर कृष्ण हंस पड़े और रुक्मिणी के होठो पर मुस्कराहट फैल गई । सत्यभामा ने ध्यानपूर्वक रुक्मिणी की ओर देखा और फिर वैदिका की ओर । वेदिका रिक्त थी । मत्यभामा सव कुछ समझ गई और जीझ कर बोली I - तो यह बात है ? अब समझी। आप दोनों का मिला-जुला षड्यन्त्र | मौत के सामने मेरा सिर झुकाने का अच्छा स्वांग रचा, तुम दोनो ने । - सत्यभामा रूठ गई । कृष्ण ने मनाने का बहुत प्रयास किया किन्तु वह मानी नही । वह अपने महल मे चली गई और रुक्मिणी अपने महल मे । वासुदेव ने रुक्मिणी को बहुत ममृद्धि दी और पति-पत्नी प्रेम रस मे निमग्न हो गए । — त्रिपटि० ८६
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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