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________________ श्रीकृष्ण कथा-रुक्मिणी परिणय सत्यभामा ने एक दिन कृष्ण से - स्वामी | अपनी प्रिया को मुझे तो बताओ । आग्रह किया १८५ कृष्ण हँसकर उस आग्रह को टाल गए किन्तु उन्हें यह भी निश्चय हो गया कि वात आगे टलने वाली नही है । किसी दिन सत्यभामा हठ कर बैठे उससे पहले ही दोनो की भेट करा देनी चाहिए | किन्तु यदि सीधी-सादी भेट करा दी तो कृष्ण की चतुराई ही क्या ? लीला - उद्यान मे श्रीदेवी की प्रतिमा एक भवन मे विराजमान थी । कृष्ण ने उस प्रतिमा को वहाँ से हटवाकर कुशल चित्रकारो के पास भिजवा दिया। श्रीदेवी की प्रतिमा के स्थान पर उन्होने रुक्मिणी को ला विठाया और उसे सिखा दिया - - यही मेरी अन्य स्त्रियाँ आने आने वाली है, इसलिए तुम निश्चल होकर देवी की मूर्ति की भाँति बैठ जाना । रुक्मिणी ने पति के हृदय की वात समझी और स्वीकृति दे दी । श्रीकृष्ण सत्यभामा के महल मे पहुँचे । सत्यभामा को तो एक ही धुन थी - रुक्मिणी को देखने की। पति को देखते ही पूछ बैठी - कहाँ छिपा रखा है, अपनी प्राण-वल्लभा को ? मेरी दृष्टि पडते ही कुरूप तो नही हो जायगी वह ' - अरे नही | अरे नही || देवि । तुम नाराज मत हो । जब इच्छा हो तब मिल लो । —कृष्ण ने घबराने का अभिनय करते हुए उत्तर दिया । - आप उसका स्थान वतावे तब तो भेट हो ? आपने तो उसे छिपा रखा है ? 1 नही देवि ' वह तो चाहे जहाँ जा सकती है। आज ही वह श्रीदेवी के मन्दिर मे गई है । वासुदेव सत्यभामा के महल से चल दिये और सत्यभामा अन्य स्त्रियो के साथ लीला - उद्यान के श्रीदेवी मन्दिर मे जा पहुँची । अनेक स्त्रियो को आते देखकर रुक्मिणी देवी मूर्ति के समान निश्चल बैठ
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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