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श्रीकृष्ण-कथा-रुक्मिणी-परिणय __ यह कह कृष्ण ने अर्द्धचन्द्राकार वाण से ताडवृक्षो की पक्ति कमलपत्रो की भाँति छेद दी और अपनी अगूठी मे लगा हीरा मसूर के दाने के समान चूर्ण कर दिया। पति का बल और पराक्रम देखकर रुक्मिणी सन्तुष्ट हो गई।
कृष्ण ने अग्रज से कहा
-आप इस वधू को लेकर त्रलिए । मैं रुक्मि-शिशुपाल आदि से निपट कर आता हूँ।
बलराम ने आदेशात्मक स्वर ने उत्तर दिया
-कृष्ण । तुम रुक्मिणी को लेकर द्वारका पहुँचो। मैं अकेला ही इन रुक्मि आदि सवको यमलोक पहुचा दूंगा।
पति का वल नो रुक्मिणी देख ही चुकी थी। वह गिड गिडाकर केली
-रुक्मि ! मेरा महोदर है। उसकी प्राण रक्षा कीजिए। बलराम ने बहन के प्रेम को समझा और रुक्मि को जीवित छोडने का आश्वासन देकर वहीं रक गए। श्रीकृष्ण रुक्मिणी को लंकर द्वारका की ओर चले गए।
X त्रओ की सेना समीप आते ही वलराम ने मूशल उठा कर युद्ध प्रारम्भ कर दिया। सम्पूर्ण सेना अकेले वलराम ने मथ डाली। गिशुपाल महित रक्मि की सेना भाग खडी हुई। रणभूमि मे अकेला रुक्मि खडा रहा । उस वीर ने युद्ध मे पीठ नही दिखाई। वलराम ने उसका रथ तोड दिया, मुकुट भग कर दिया और छत्र गिरा दिया। उसके पश्चात् क्षुरप्रवाण से उसके दाडी-मूछो को उखाड कर वोले___-मूर्ख । तुम मेरे अनुज की पत्नी के भाई हो, इस कारण अवध्य हो । मेरी कृपा ने दाढी-मूछ रहित होकर अपनी पत्नियो के साथ विलास करो।
बलराम तो यह कह कर चल दिये किन्तु अपमानित वीर रुक्मि वापिस कटिनपुर नहीं गया। उसी स्थान पर भोजकट नगर वसा कर रहने लगा।
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