________________
रुक्मिणी-परिणय
द्वारका की समृद्धि दिन दूनी रात चौगुनी बढ रही थी । उसकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई ।
u
घूमते-घामते नारदजी एक दिन कृष्ण की राजसभा मे आ पहुंचे । कृष्ण-बलराम दोनो भाइयो तथा सभी उपस्थित जनो ने नारद का स्वागत किया । अनेक प्रकार के विनयपूर्ण शब्दो को सुनकर देवर्षि सन्तुष्ट हुए किन्तु उनके हृदय मे इच्छा जाग्रत हुई कि 'जैसे विनयी श्रीकृष्ण है, क्या वैमी ही विनयवान उनकी रानियाँ भी है ।'
इच्छा जाग्रत होने की देर थी कि नारदजी को कृष्ण के अन्तः पुर मे पहुँचने मे विलम्ब नही हुआ । सभी रानियों ने देवर्षि का उचित आदर किया किन्तु सत्यभामा अपने बनाव - सिगार मे लगी रही। उसने नारदजी की ओर देखा तक नही ।
अनादर सभी को कुपित कर देता है जिसमे तो वह विश्वविख्यात कलहप्रिय मुनि नारद थे । सत्यभामा के भवन से ललाट पर वल डालकर वे लौट गए । मन मे विचार करने लगे - ' इस रूप गर्विता सत्यभामा को कृष्ण की पटरानी होने का वडा अहकार है । इसकी छाती पर सौत लाकर बिठा दी जाय तो इसके होग ठिकाने आ जायें ।'
स्वेच्छा विहारी नारद के लिए यह काम कौन सा कठिन था । अपनी अभिलापा को हृदय मे दवाए अनेक नगरो और ग्रामो मे घूमते रहे । कुडिनपुर मे उनकी अभिलपित वस्तु दिखाई दी - रुक्मिणी ।
रुक्मिणी कुडिनपुर नरेश राजा भीष्मक और रानी यशोमती की पुत्री थी । रुक्मि नाम का वलवान युवक उसका भाई था। मुनि नारद
१७६