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से सुरक्षित एक किला बनाया । उससे एक, दो, तीन मजिल वाले लाखों भवनो का निर्माण किया। अग्निकोण विदिशा मे स्वस्तिकाकार एक महल राजा समुद्रविजय के लिए, नैऋत्य दिशा का महल पाँचवे और छठे दगा के लिए इसी प्रकार अन्य दशाहों के लिए भी महलो की रचना हुई । राजमार्ग के समीप स्त्रीविहारक्षम महल उग्रसेन राजा के लिए तथा सभी प्रासादो से दूर हयशाला, गजगाला आदि का निर्माण किया । इन सबके मध्य मे वलराम के लिए पृथिवीजय नाम का महल और कृष्ण के लिए सर्वनोभद्र नामक प्रासाद का निर्माण क्रिया |
सम्पूर्ण नगरी स्थान-स्थान पर तोरण, पताका आदि से सजा दी गई । यत्र-तत्र वेदिका, कूप, वावडी, तडाग, उद्यान, राजमार्गो का
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निर्माण हुआ ।
द्वारका इन्द्र की राजधानी अलकापुरी के समान सुशोभित होने लगी ।
नगर-निर्माण के पश्चात् कुदेर ने कृष्ण को दो पीताम्बर, नक्षत्रमाला, हार, मुकुट, कौस्तुभ नाम की महामणि, गाङ्ग, धनुप, अक्षय वाण वाले तरकस, नन्दक नाम की खड्ग, कौमुदी नाम की गदा और गरुडध्वज रथ दिया । वलराम को वनमाला, मूगल, दो नील वस्त्र, तालध्वज रथ, अक्षय वाण वाले तरकस, धनुष और हल दिये । कृष्ण और बलराम के पूज्य होने के कारण सभी दगाहों को रत्नमयी आभूषण तथा अनेक प्रकार के रत्न प्रदान किये ।
समस्त यादवो ने कृष्ण को शत्रु सहारक मानकर पश्चिम समुद्र के किनारे पर उनका राज्याभिषेक किया ।
राज्याभिषेक के पञ्चात् यादवो ने नगर प्रवेश की तैयारी की । बलराम अपने सारथि सिद्धार्थ द्वारा संचालित रथ मे आरूढ हुए और कृष्ण अपने सारथि दारुक द्वारा संचालित रथ मे । अन्य यादव उनके चारो ओर खड़े थे । उस समय दोनो भाई ग्रह नक्षत्रों से घिरे सूर्यचन्द्र के समान मुगोभित हो रहे थे ।