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जैन कथामाला भाग ३२
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निमित्तज्ञ के वचनो के अनुसार राजा समुद्रविजय ने परिवार सहित मथुरापुरी छोड़ दी । उनके पीछे-पीछे उग्रसेन भी चल दिये । मथुरा से ग्यारह कुल कोटि यादव उनका अनुसरण करते हुए चने शौर्यपुर में सात कुल कोटि यादव और सम्मिलित हो गये । अब दगार्ह राजा, समस्त परिवार परिकर और राजा उग्रसेन सहित अठारह कोटि यादवो को लेकर विन्ध्याचल की ओर प्रस्थित हुए ।
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राजा सोमक ने जरासव के समक्ष पहुंचकर सारी वार्ता कह कह सुनाई । जरासंध की कोधाग्नि में घी पड गया। उसकी आँखें क्रोध से लाल हो गई । पिता की कुपित मुद्रा देखकर पुत्र काल कुमार वोला
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- पिताजी | आप मुझे आज्ञा दीजिए। मैं इन यादवो को अग्नि से, समुद्र से भी खीचकर मार डालूंगा । यदि इतना न कर सका तो मुँह नही दिखाऊँगा ।
जरासंध ने कालकुमार को अन्य ५०० राजाओ के साथ बडी सेना लेकर यादवो पर चढाई करने के लिए भेज दिया । उसके साथ उसके भाई यवन और सहदेव भी चले ।
कालकुमार यादवो का पीछा करता हुआ विन्ध्याचल मे आ पहुँचा । तब श्रीकृष्ण के रक्षक देवताओ को चिन्ता हुई । देवो ने एक द्वार वाले विशाल दुर्ग का निर्माण किया । उसमे स्थान-स्थान पर अनेक चिताएँ जल रही थी । वाहर एक वृद्धा बैठी रो रही थी । कालकुमार वहाँ पहुँचा तो वृद्धा से पूछने लगा
- क्यो रोती हो ? ये चिताएँ किस की है ?
- कालकुमार के भय से सभी यादव अग्नि में प्रवेश कर गए हैं । मैं उनके वियोग से दुखी होकर रो रही हैं । अब मैं अधिक जीवित नही रह सकती। मैं भी अग्नि प्रवेश करती हूँ ।
यह कहकर वृद्धा चिता मे कूद पडी ।