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जैन कथामाला भाग ३२
~कस हत्यारा था, निरपराध-निगेह गिशुओ का कर घातक । वसुदेव का उसके रक्तरजित हाथो से गिशु को रक्षा के लिए छिपा लेना, अन्य स्थान पर पालन-पोपण करवाना, कृष्ण-बलराम का ऐने आततायी अत्याचारी को मार डालना न धर्म-विरद्ध हे, न नीति विरुद्ध। ___-किन्तु स्वामी की अवहेलना करना, उसकी आज्ञा का पालन न करना अवश्य ही नीति विरुद्ध है। -राजा सोमक ने भी दृढता से प्रत्युत्तर दिया। अव कृष्ण चुप न रह सके । वे वीच मे ही बोल पडे
कौन स्वामी ? किसका स्वामी ? हम किसी स्वामी को नहीं जानते?
राजा सोमक ने श्रीकृष्ण की ओर दृष्टि घुमाई । ऊपर से नीचे तक देखा-मानो बोलने से पहले युवक कृरण की क्षमता को तोल रहा हो । उत्तेजित होकर वोला
--युवक | जरासध स्वामी है, सब दशार्हो का, समस्त दक्षिण भरतार्द्ध का। आप सब उसकी आज्ञा पालन करने को बाध्य है, समझे।
---आज तक हमने उसकी इच्छा का सम्मान अपनी सज्जनतावग किया है। किन्तु उसने अत्याचारी कस का पक्ष लेकर आज से वह सम्बन्ध भी तोड दिया।
सोमक कृष्ण को तो प्रत्युत्तर दे न सका। वह समुद्रविजय को सबोवित करके वोला
-राजन् ! यह लडका तो कुलागार है ।
श्रीकृष्ण के प्रति कुलागार शब्द अनाधृष्टि न सह सका। वह क्रोधित होकर वोला__-आपकी धृष्टतापूर्ण वाते हम बडी देर से सुन रहे हैं। ऐसे अमर्यादित वचन हमारे सम्मान के विरुद्ध है । आप जिस अहकार से गवित हो रहे है उसे हम शीघ्र ही नष्ट कर देगे।