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प्रस्तावना
भारतीय साहित्य में श्रीकृष्ण - कथा
भारतीय वाडमय मे जितना अधिक साहित्य श्रीकृष्ण के सम्बन्ध मे मिलता है, उतना अन्य किसी महापुरुष के सम्बन्ध मे नही । इनके असाधारण, अद्भुत और अलौकिक व्यक्तित्व एव कृतित्व के प्रति जैन व हिन्दू कवि ही नही मुसलमान कवि भी आकर्षित हुए और उन्होने भी इनका गुणानुवाद किया, जिनमे रसखान, रहीम आदि प्रमुख हैं ।
श्रीकृष्ण का चरित्र इतना विविधतापूर्ण और विचित्र रहा है कि प्राचीन काल मे अब तक इनके पुजारी और आलोचक दोनो ही रहे हे । जब ये विद्यमान थे तव भी दुर्योधन, शल्य, जरामघ आदि ने तो आलोचना की ही, इनकी पटरानियों में से मत्यभामा भी इन्हे नटखट और चालाक समझती रही। दूसरी ओर उन पर अडिग विश्वान करने वाले पाडव, रुक्मिणी आदि अनेक लोग भी रहे । विदुर का विश्वाम तो पूजा-उपासना की सीमा तक बढा हुआ था । संभवत यही कारण था कि एक ओर कुछ लोग इन्हे 'चोराग्रगण्य' की उपाधि से विभूषित करते थे तो दूसरी ओर अधिकाश जनता इन्हे 'लोकमगलकारी' के रूप मे देखती थी । इसी कारण श्रीकृष्ण चरित्र विविधतापूर्ण हो गया - कही अलौकिक और चमत्कारी घटनाएँ जुड़ गई हैं तो कही माखनचोरी, गोपीरजन आदि की लीला प्रधान घटनाएँ भी ! किन्तु इतना सत्य है कि अपने विभिन्न रूपो और विविध प्रकार के अद्भुत क्रियाकलापो द्वारा जितना इन्होने भारतीय मानस को प्रभावित किया उतना और किसी ने नही । उनका जीवन चरित्र भारत की तीनो धर्म परम्पराओवैदिक, वौद्ध और जैन - मे मिलता है ।
वैदिक परम्परा मे श्रीकृष्ण
मथुरा के राजा कम के बन्दीगृह मे देवकी की कोख से वसुदेव-पुत्र कृष्ण का जन्म हुआ । 'देवकी का पुत्र कस को मारेगा' इस आकाशवाणी को