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________________ १२ देवी का वचन हम जैसे पुसत्वहीनो को धिक्कार है। --एक वार नही मी बार | तुम धिक्कार की बात कह रहे हो, मैं तो कहता हूँ मर जाना ही अच्छा है। ___-मरना भी तो वहादुर ही जानते है । हम जैसे कायर तो रण छोडकर भाग ही सकते है। -एक ने सब को मार भगाया। जीवन तो ऐसे ही पराक्रमियो का है। हम जैसे डरपोको का क्या ? --सच कहते हो, पृथ्वी के भार है हम तो। दो नये तापस परस्पर वार्तालाप कर रहे थे। वसुदेव को उनकी वातो मे रुचि हो आई । उन्होने पूछा -आप लोग क्यो इतने खेदखिन्न हो रहे है ? नये तापसो मे से एक ने बताया - श्रावस्ती नगरी मे निर्मल चरित्र वाला एणीपुत्र नाम का एक राजा है। उसने अपनी रतिरूपा युवा पुत्री प्रियगुसुन्दरी के स्वयवर मे अनेक राजाओ को निमत्रित किया। हम भी उसमे सम्मिलित हुए। राजकुमारी ने किसी का वरण नही किया तो राजा लोग क्रोध मे भर गये। उन्होने युद्ध प्रारभ कर दिया किन्तु एणीपुत्र की वीरता तो देखो । उस अकेले ने ही सव को मार भगाया। कोई पहाड मे जा छिपा तो कोई वन मे और हम दोनो यहाँ तापस वन कर आ गये। अपनी इस कायरता को ही धिक्कार रहे थे। उसकी बात सुनकर वसुदेव ने कहा ~तापस ! सब पुण्य का प्रभाव है और पुण्य होता है धर्मसेवन से । सच्चा धर्म है जैनधर्म, भगवान अर्हन्त सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट । उसी ७८
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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