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जैन कथामाला
- प्रिये । तुमने मुझे किस प्रकार प्राप्त किया ? वेगवती की अश्रुधारा बह रही थी । बडी कठिनाई से आँसू रोक कर रुंधे गले मे आप बीती कहने लगी
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- स्वामी । जिस समय मैं भैय्या से उठी तो आप मुझे दिखाई न दिये । मैं रुदन करने लगी । उस समय प्रज्ञप्ति विद्या ने आकर मुझे आपके हरण और आकाश से गिरने का समाचार सुनाया । मैंने अपने हृदय में विचार किया कि 'आपके पास किसी मुनि की बताई हुई प्रभाविक विद्या है | कुछ समय पश्चात् स्वय ही आ मिलेगे ।' किन्तु जब आप काफी दिनो तक नही आये तो मैं आपकी खोज में निकली। ढूंढ-ढूंढते मिद्धायतन में पहुँची तो आप मदनवेगा के साथ थे । मुमैं अप्रत्यक्ष रूप में आपके साथ लगी रही । आप दोनो के पीछे-पीछे मै अमृत-धार नगर मे आई । आपके मुख मे मदनवेगा के बजाय अपना नाम सुनकर मुझे प्रसन्नता हुई कि आप मुझे भूले नही है । मदनवेगा के रूठ कर अतगृह मे चने जाने के बाद जब त्रिशिखर की पत्नी मूर्पणखा ने मदनवेगा के रूप मे आपका अपहरण किया तो मैं भी उसके पीछे-पीछे गई । जव उसने आपको राजगृही नगरी के बाहर किराया तो मैं मानसवेग का रूप रखकर आपको बचाने दौडी लेकिन उस दुप्टा ने मुझे देख लिया और विद्या वल से मुझे मार भगाया । उसमे भयभीत होकर में समीप के एक चैत्य मे दीडी दौडी जा रही थी । उस समय भूल मे किमी मुनि का उल्लघन हो गया और मेरी सारी विद्याएँ नष्ट हो गई ।
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भाग ३१
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तभी मेरी धायमाता मुझे मिली । मैंने अपना पूरा वृतान्त उसे सुना दिया | जब आपको जरासंध के सैनिको ने पर्वत से नीचे गिराया नो मेरी धायमाँ ने ही आपको बचाकर मेरे पास तक पहुँचाया ।
वेगवती की निष्ठा मे वसुदेव बहुत प्रभावित हुए। पूछा
-यह कोन मा स्थान है ?
- नाथ | यह ह्रीमान पर्वत का पचनद तीर्थ है |
वसुदेव और वेगवती दोनो कुछ देर तक तो सुख-दुख की बाते