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________________ आवे संघ तिहां बहुबल पूरे ॥ ११२ ॥ नपे वनराइ नार अढार, अांबा चापानो न लहुं पा र॥ आबु न दीठो तेहनो आवतार, निःफल जापजो ते निरधार ॥ ११३॥ गजपति घो माशुं विमलशाह घोडे, उपे अदनुत रूप संजो डे ॥ फूल केतकी श्राबुगढ मांहें, परिमल पूरेने सीरोही जायें॥११४॥नूत नंदने मुनिगण इंदु, (१७८७) ज्येष्ठ शुद्ध आठमवार दिणंदु॥रूमो शिलोको एह रचायो, खेडे हरियाले कलश च ढायो ॥ ११५॥ हीररत्न सूरि वंदी गणधार, उत्तम ए में कधिो गुणधार ॥ एकवार तो आबु गढ जोजो, हिम्मत राखी समकेति होजो ॥ ॥ ११६॥ नाव धरीने एह जे नशे, लिखशे गिणशे ने सनामां गुणशे॥वाचक उदयनी एह वीवाणी.सद्धि सर्दहजोशन फलजाणी॥११७॥ ॥ इति शिलोका संग्रह समाप्त ॥ ( शिलोका संग्रह नाग २ जो उपेठे ) (किंमत ५ अाना )
SR No.010305
Book TitleJain Shiloka Sangraha Pustika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNana Dadaji Gund
PublisherNana Dadaji Gund
Publication Year
Total Pages83
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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