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* चौथा परिच्छेद *
वसुदेव का गृहत्याग उधर सिहरथ की विजय के पश्चात् जव वसुदेव जरासन्ध के
र यहां से लौटे तो उनकी वीरता की कहानियाँ सर्वत्र विख्यात हो चुकी थीं। नगर और देश की सुन्दरियाँ उनके रूप, गुण, कार्यों और यशोगाथाओ का वर्णन करते-करते अघाती न थीं। जहाँ देखो वहीं उनके गुणानुवादों की चर्चा होती रहती थी। प्रत्येक के हृदय मे उनको निरन्तर देखते रहने की लालसा जागृत हो उठी । आबाल, वृद्ध वनिता पर्यन्त सभी नर-नारियो के नेत्र चकोर वसुदेव के रूप सुधापान करने के लिए प्रतिपल उत्सुक रहते थे। ऐसा कोई क्षण न बीतता जब उनके मनो मे वसुदेव न बसे रहते हों।
युवतियो की अवस्था तो और भी विचित्र थी। वे तो उनका नाम सुनते ही घर बार के सब काम छोड़ उनके पीछे भाग निकलती, न उन्हे कुल मर्यादा की ही चिन्ता थी न लोक लज्जा की परवाह । उनके रूप का आकर्षण ही कुछ ऐसा अनोखा था कि सभी का मन वरबस उनकी ओर खिंच जाता । वे उद्यान मे जब-जब सैर के लिए निकलते तब तब उनके पीछे पागल से बने हुए नर-नारियो का झुण्ड चारो ओर से उन्हें घेर लेता।
कुल ललनाओं की ऐसी विचित्र अवस्था देख पुर के प्रमुख पुरुषों के हृदयों मे बड़ी भारी चिन्ता के भाव जागृत हो उठे। बड़े-बूढ़ों के हृदय और भी अधिक व्याकुल और खिन्न से रहने लगे । इसका कुछ उपाय भी तो दिखाई न देता था। क्या करें और क्या न करे, इस समस्या का कुछ भी समाधान न सूझता था। बहुत कुछ सोचनेसमझने और विचार करने के पश्चात् वयोवृद्ध नागरिको ने निश्चय